पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६३
भ्रमरगीत-सार
 

वै अबिनासी ज्ञान घटैगो यहि बिधि जोग सिखाए।
करैं भोग भरिपूर सूर तहँ, जोग करैं ब्रज आए॥१५५॥


राग नट
मधुकर! ये नयना पै हारे।

निरखि निरखि मग कमलनयन को प्रेममगन भए भारे॥
ता दिन तें नींदौ पुनि नासी, चौंकि परत अधिकारे।
सपन तुरी[१] जागत पुनि सोई जो हैं हृदय हमारे॥
यह निगुन लै ताहि बतावो जो जानैं याके सारे।
सूरदास गोपाल छाँड़ि कै चूसैं टेटी[२] खारे॥१५६॥


राग धनाश्री
मधुकर! कह कारे की जाति?

ज्यों जल मीन, कमल पै अलि की, त्यों नहिं इनकी प्रीति॥
कोकिल कुटिल कपट बायस छलि फिरि नहिं वहि वन जाति।
तैसेहि कान्ह केलि-रस अँचयो बैठि एक ही पाँति॥
सुत-हित जोग जज्ञ ब्रत कीजत बहु बिधि नींकी भाँति।
देखहु अहि मन मोहमया तजि ज्यों जननी जनि[३] खाति॥
तिनको क्यों मन बिसमौ कीजै औगुन लौं सुख-सांति।
तैसेइ सूर सुनौ जदुनंदन, बजी एकस्वर तांति॥१५७॥


राग रामकली
मधुकर! ल्याए जोग-संदेसो।

भली स्याम-कुसलात सुनाई, सुनतहिं भयो अंदेसो॥
आस रही जिय कबहुँ मिलन की, तुम आवत ही नासी[४]


  1. तुरी=तुरीयावस्था।
  2. टेटी=करील का फल।
  3. जनि=जनकर, पैदा करके!
  4. नासी=नष्ट की।