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भ्रमरगीत-सार
वै अबिनासी ज्ञान घटैगो यहि बिधि जोग सिखाए।
करैं भोग भरिपूर सूर तहँ, जोग करैं ब्रज आए॥१५५॥
मधुकर! ये नयना पै हारे।
मधुकर! कह कारे की जाति?
ज्यों जल मीन, कमल पै अलि की, त्यों नहिं इनकी प्रीति॥
कोकिल कुटिल कपट बायस छलि फिरि नहिं वहि वन जाति।
तैसेहि कान्ह केलि-रस अँचयो बैठि एक ही पाँति॥
सुत-हित जोग जज्ञ ब्रत कीजत बहु बिधि नींकी भाँति।
देखहु अहि मन मोहमया तजि ज्यों जननी जनि[३] खाति॥
तिनको क्यों मन बिसमौ कीजै औगुन लौं सुख-सांति।
तैसेइ सूर सुनौ जदुनंदन, बजी एकस्वर तांति॥१५७॥
मधुकर! ल्याए जोग-संदेसो।
भली स्याम-कुसलात सुनाई, सुनतहिं भयो अंदेसो॥
आस रही जिय कबहुँ मिलन की, तुम आवत ही नासी[४]।