पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६७
भ्रमरगीत-सार
 


राग नट
उधो! हम आजु भईं बड़भागी।

जैसे सुमन-गंध लै आवतु पवन मधुप अनुरागी।
अति आनंद बढ़्यो अँग अँग मैं, परै न यह सुख त्यागी।
बिसरे सब दुख देखत तुमको स्यामसुन्दर हम लागी[१]
ज्यों दर्पन मधि दृग निरखत जहँ हाथ तहाँ नहिं जाई।
त्यों ही सूर हम मिलीं साँवरे बिरह-बिथा बिसराई॥१६६॥


राग सारंग
पाती सखि! मधुबन तें आई।

ऊधो-हाथ स्याम लिखि पठई, आय सुनौ, री माई!
अपने अपने गृह तें दौरीं लै पाती उर लाई।
नयनन नीर निरखि नहिं खंडित प्रेम न बिथा बुझाई॥
कहा करौं सूनो यह गोकुल हरि बिनु कछु न सुहाई।
सूरदास प्रभु कौन चूक तें स्याम सुरति बिसराई?॥१६७॥


उद्धव-वचन

राग नट

सुनु गोपी हरि को सँदेस।

करि समाधि अंतर-गति चितवौ प्रभु को यह उपदेस॥
वै अबिगत, अबिनासी, पूरन, घटघट रहे समाय।
तिहि निश्चय कै ध्यावहु ऐसे सुचित कमलमन लाइ॥
यह उपाय करि बिरह तजौगी मिलै ब्रह्म तब आय।
तत्त्वज्ञान बिनु मुक्ति न होई निगम सुनाबत गाय॥
सुनत सँदेस दुसह माधव के गोपीजन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, नयन ढरत अति पानी॥१६८॥


  1. लागीं=मिली।

१०