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भ्रमरगीत-सार
 

आवन की अवधि-आस सोई गनि घटत स्वास।
इतो बिरह बिरहिनि क्यों सहि सकै कह सूरदास?॥१८३॥


राग आसावरी
ऊधो! कहत न कछू बनै।

अधरामृत-आस्वादिनि रसना कैसे जोग भनै?
जेहि लोचन अवलोके नखसिख-सुन्दर नंदतनै।
ते लोचन क्यों जायँ और पथ लै पठए अपनै?
रागिनि राग तरँग तान घन जे स्रुति मुरलि सुनै।
ते स्रुति जोग-सँदेस कठिन कह काँकर मेलि हनै॥
सूरदास स्यामा मोहन के यह गुन बिबिध गुनै।
कनकलता तें उपज न मुक्ता, षटपद! रंग चुनै॥१८४॥


राग मारू
ऊधो! इन नयनन नेम लियो।

नँदनंदन सों पतिव्रत बाँध्यो, दरसत नाहि बियो[१]
इंदु चकोर, मेघ प्रति चातक जैसे धरन दियो।
तैसे ये लोचन गोपालै इकटक प्रेम पियो॥
ज्ञानकुसुम लै आए ऊधो! चपल न उचित कियो।
हरिमुख-कमल अमियरस सूर चाहत वहै लियो॥१८५॥


राग केदारो
ऊधो! ब्रजरिपु बहुरि जिए।

जे हमरे कारन नँदनंदन हति हति दूरि किए॥
निसि के वेष बकी है आवति अति डर करति सकंप हिए।
तिन पय तें तन प्रान हमारे रबि ही छिनक छिनाय लिए॥


  1. बियो=दूसरा।