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भ्रमरगीत-सार
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बन बृकरूप, अघासुर सम गृह, कितहू तौ न बितै सकिए।
कोटिक कालीसम कालिंदी, दोषन सलिल न जात पिए॥
अरु ऊँचे उच्छास तृनाव्रत तिहिं सुख सकल उड़ाय दिए।
केसी सकल कर्म केसव बिन, सूर सरन काकी तकिए?॥१८६॥


राग सारंग
ऊधो! कहिए काहि सुनाए?

हरि बिछुरत जेती सहियत हैं इते बिरह के घाए॥
बरु माधव मधुबन ही रहते, कत जसुदा के आए?
कत प्रभु गोप-बेष ब्रज धार्‌यो, कत ये सुख उपजाए?
कत गिरि धारि इँद्र-मद मेट्यो, कत बन रास बनाए?
अब कह निठुर भए हम ऊपर लिखि लिखि जोग पठाए?
परम प्रबीन सबै जानत हौ, तातें यह कहि आए।
अपनी कौन कहै सुनु सूर मात-पिता बिसराए॥१८७॥


ऊधो! भली करी गोपाल।

आपुन तौ आवत नाहीं ह्याँ, वहाँ, रहे यहि काल॥
चन्दन चन्द हुतो तब सीतल, कोकिलसब्द रसाल।
अब समीर पावक सम लागत, सब ब्रज उलटी चाल॥
हार, चीर, कंचुकि कंटक भए, तरनि तिलक भए भाल।
सेज सिंह, गृह तिमिर-कंदरा, सर्प सुमन-मनिमाल।
हम तौ न्याय सहैं एतो दुख बनवासी जो ग्वाल।
सूरदास स्वामी सुखसागर भोगी भ्रमर भुवाल॥१८८॥


राग सोरठ
अपने मन सुरति करत रहिबी।

ऊधो! इतनी बात स्याम सों समय पाय कहिबी॥