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भ्रमरगीत-सार
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स्याम सघन तन सींची बेली, हस्त कमल धरि पाली।
अब ये बेली सूखन लागीं, छाँड़ि दई हरि-माली॥
तब तो कृपा करत ब्रज ऊपर संग लता ब्रजबाली।
सूर स्याम बिन मरि न गई क्यों बिरहबिथा की घाली?[१]॥२०४॥
ऊधो! जो हरि हितू तिहारे।
तौ तुम कहियो जाय कृपाकै जे दुख सबै हमारे॥
तन तरुवर ज्यों जरति बिरहिनी, तुम दव ज्यों हम जारे।
नहिं सिरात[२], नहिं जरत छार ह्वै सुलगि सुलगि भए कारे॥
जद्यपि उमगि प्रेमजल भिजवत बरषि बरषि घन-तारे[३]।
जौ सींचे यहि भाँति जतन करि तौ इतने प्रतिपारे॥
कीर, कपोत, कोकिला, खँजन बधिक-बियोग बिडारे।
इन दुःखन क्यों जियहिं सूर प्रभु ब्रज के लोग बिचारे?॥२०५॥
ऊधो! तुम आए किहि काज?