मधुकर! ये सुनु तन मन कारे।
कहूं न सेत सिद्धताई तन परसे हैं अँग कारे॥
कीन्हो कपट कुंभ विषपूरन पयमुख प्रगट उघारे।
बाहिर बेष मनोहर दरसत, अन्तरगत जु ठगारे॥
अब तुम चले ज्ञान-बिष दै हरन जु प्रान हमारे।
ते क्यों भले होहिं सूरप्रभु रूप, बचन, कृत कारे॥२७३॥
राग सारंग
मधुकर! तुम रसलंपट लोग।
कमलकोस में रहन निरंतर हमहिं सिखावत जोग।
अपने काज फिरत ब्रज-अंतर निमिष नहीं अकुलात।
पुहुए गए बहुरै बेलिन के नेकु न नेरे जात॥
तुम चंचल हौ, चोर सकल अँग बातन क्यों पतियात?
सूर बिधाता धन्य रच्यो जो मधुप स्याम इकगात॥२७४॥
मधुकर! कासों कहि समझाऊँ?
अंग अंग गुन गहे स्याम के, निर्गुन काहि गहाऊँ?
कुटिल कटाच्छ बिकट सायक सम, लागत मरम न जाने।
मरम गए उर फोरि पिछौं हैं पाछे पै अहटाने[१]॥
घूमत रहत सँभारत नाहिंन, फेरि फेरि समुहाने।
टूक टूक ह्वै रहे ढोर[२] गहि पाछे पग न पराने॥
उठत कबंध जुद्ध जोधा ज्यों बाढ़त संमुख हेत।
सूर स्याम अब अमृत-बृष्टि करि सींचि प्रान किन देत?॥२७५॥