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भ्रमरगीत-सार
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नाहिंन और उपाय रमापति बिन दरसन छन जीजै।
अस्रु-सलिल बूड़त सब गोकुल सूर सुकर गहि लीजै॥२८८॥


हमको सपनेहू में सोच।
जा दिन तें बिछुरे नँदनँदन ता दिन तें यह पोच॥
मनो गोपाल आए मेरे घर, हँसि करि भुजा गही।
कहा करौं बैरिनि भइ निंदिया, निमिष न और रही॥
ज्यों चकई प्रतिबिंब देखिकै आनंदी[१] पिय जानि।
सूर, पवन मिस निठुर बिधाता-चपल कर्‌यो जल आनि॥२८९॥


राग कान्हरो

अँखियाँ अजान भईं।
एक अंग अवलोकत हरि को और हुती सो गई।
यों भूली ज्यों चोर भरे घर चोरी निधि न लई।
बदलत[२] भोर भयो पछितानी, कर तें छाँड़ि दई॥
ज्यों मुख परिपूरन हो त्यों ही पहिलेइ क्यों न रई।
सूर सकति अति लोभ बढ्यो है, उपजति पीर नई॥२९०॥


राग केदारो

दधिसुत[३] जात हौ वहि देस।
द्वारका हैं स्यामसुंदर सकल भुवन-नरेस॥
परम सीतल अमिय-तनु तुम कहियो यह उपदेस।
काज अपनो सारि, हमकों छाँड़ि रहे बिदेस॥
नंदनंदन जगतबंदन धरहु नटवर-भेस।
नाथ! कैसे अनाथ छाँड़्यो कहियो सूर सँदेस॥२९१॥


  1. आनंदी=आनंदित हुई।
  2. बदलत=यह लें कि यह लें, यही सोचते और वस्तु बदलते।
  3. दधिसुत=उदधिसुत, चंद्रमा।