पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/३४

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रोस कै देकर दाँवरी लै; फ़िरति-घर घर धरति।
कठिन हिय करि तब जो बाँध्यों,अब वृथा करि मरति॥

यह 'झुंँझलाहट' वियोग-जन्य है, प्रेम-भाव के ही अन्तर्गत है और कितनी स्वाभाविक है! सुख-शांति के भंग का कैसा यथातथ्य चित्र है! आगे देखिए, गहरी 'उत्सुकता' और 'अधीरता' के बीच 'विरक्ति' (निर्वेद) और तिरस्कार-मिश्रित-'खिझलाहट' का यह मेल कैसा अनूठा उतरा है। यशोदा नंद से कहती हैं––

नंद! ब्रज लीजै ठोंकि-बजाय।
देहु बिदा मिलि जाहिं मधुपुरी जहँ गोकुल के राय॥

'ठोंकि बजाय' में कितनी व्यंजना है! 'तुम अपना ब्रज अच्छी तरह सँभालो; तुम्हें इसका गहरा लोभ है; मैं तो जाती हूँ'। एक एक वाक्य के साथ हृदय लिपटा हुआ आता दिखाई दे रहा है। एक वाक्य दो दो तीन तीन भावों से लदा हुआ है। श्लेष आदि कृत्रिम विधानों से मुक्त ऐसा ही भाव-गुरुत्व हृदय को सीधे जाकर स्पर्श करता है। इसे भाव-शवलता कहें या भाव-पंचामृत; क्योंकि एक ही वाक्य "नंद! ब्रज लीजै ठोंकि बजाय" में कुछ निर्वेद, कुछ तिरस्कार और कुछ अमर्ष इन तीनों की मिश्र व्यंजना––जिसे शवलता ही कहने से संतोष नहीं होता––पाई जाती है। शवलता के प्रदत्त उदाहरणों में प्रत्येक भाव अलग शब्दों या वाक्यों द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है; पर उक्त वाक्य में यह बात नहीं है।

ग्वाल सखाओं की भी यही दशा हो, रही है। कभी वे व्याकुल और अधीर होते हैं, कभी कृष्ण की निष्ठुरता पर क्षुब्ध होकर कहते हैं––