पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/३५

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भए हरि मधुपुरी-राजा, बड़े बंस कहाय।
सूत मागध बदत बिरुदहि बरनि बसुद्यौ तात॥
राजभूषन अंग भ्राजत, अहिर कहत लजात॥

वियुक्त प्रिय पुत्र के सुख के अनिश्चय की 'शंका' तक न पहुँचती हुई भावना, 'दीनता' और क्षोभ-जन्य 'उदासीनता' किस प्रकार इन वचनों से टपक रही है––

सँदेसो देवकी सों कहियो।
हौं तो धाय तिहारे सुत की, कृपा करति ही रहियो॥
तुम तो टेव जानतिहि ह्वैहौ तऊ मोहिं कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल-लड़ैतहि माखन रोटी भावै॥

कृष्ण राजभवन में जा पहुँचे हैं, यह जानते हुए भी यशोदा के प्रेमपूर्ण हृदय में यह बात जल्दी नहीं बैठती कि कृष्ण के सुख का ध्यान जितना वे रखती थीं उतना संसार में और भी कोई रख सकता है। रसमग्न हृदय ही ऐसी दशाओं का अनुभव कर सकता है। केवल उदाहरण की लीक पीटनेवालों के भाग्य में यह बात कहाँ!

आगे चलकर गोपियों की वियोग-दशा का जो धारा प्रवाह वर्णन है उसका तो कहना ही क्या है। न जाने कितनी मानसिक दशाओं का सँचार उसके भीतर है। कौन गिना सकता है? संयोग और वियोग दो अंग होने से श्रृङ्गार को व्यापकता बहुत अधिक है। इसी से वह रसराज कहलाता है। इस दृष्टि से यदि सूरसागर को हम रससागर कहें तो वेखटके कह सकते हैं। कृष्ण के चले जाने पर सायं प्रभात तो उसी प्रकार होते हैं, पर "मदन गोपाल बिना या तन की सबै बात बदली"। ब्रज में पहले सायंकाल में जो मनोहर दृश्य देखने में आया करता था वह अब बाहर नहीं