कर उलट जाती है, जिससे सफेद भाग ऊपर हो जाता है। बरसात की अँधेरी रात में कभी कभी बादलों के हट जाने से जो चाँदनी फैल जाती है वह ऐसी ही लगती है––
पिया बिनु साँपिनि कारी राति।
कबहुँ जामिनी होत जुन्हैया डसि उलटी ह्वै जाति॥
इस पद पर न जाने कितने लोग लट्टू हैं!
सूरदासजी का विहार-स्थल जिस प्रकार घर की चार-दीवारी के भीतर तक ही न रहकर यमुना के हरे भरे-कछारों, करील के कुंजों और वनस्थलियों तक फैला है उसी प्रकार उनका विरह-वर्णन भी "बैरिन भइँ रतियाँ" और "साँपिन भइ सेजिया" तक ही न रहकर प्रकृति के खुले क्षेत्र के बीच दूर दूर तक पहुँचता है। मनुष्य के आदिम वन्य जीवन के परंपरागत मधुर संस्कार को उद्दीप्त करनेवाले इन शब्दों में कितना माधुर्य्य है––"एक बन ढूँढ़ि सकल बन ढूँढ़ौं, कतहुँ न स्याम लहौं"। ऋतुओं का आना जाना उसी प्रकार लगा है। प्रकृति पर उनका रंग वैसा ही चढ़ता उतरता दिखाई पड़ता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं की वस्तुएँ देख जैसे गोपियों के हृदय में मिलने की उत्कंठा उत्पन्न होती है वैसे ही कृष्ण के हृदय में क्यों नहीं उत्पन्न होती? जान पड़ता है कि ये सब-उधर जाती ही नहीं, जिधर कृष्ण बसते हैं। सब वृन्दावन में ही आ आ कर अपना अड्डा-जमाती हैं––
मानौ, माई! सबन्ह इतै ही भावत।
अब वहि देस नंदनंदन को कोठ न समौ जनावत॥
धरत न वन नवपत्र, फूल, फल, पिक बसंत नहिं गावत।
मुदित न सर सरोज अलि गुंँजत, पवन पराग उड़ावत॥