पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/३८

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पावस बिबिध बरन बर बादर उठि नहिं अंबर छावत।
चातक मोर चकोर सोर करैं, दामिनि रूप दुरावत॥

अपनी अंतर्दशा को ऋतु-सुलभ, व्यापारों के बीच बिंब-प्रति- बिंब रूप में देखना भाव-मग्न अंतःकरण की एक विशेषता है। इसके वर्णन में प्रस्तुत अप्रस्तुत का भेद मिट सा जाता है। ऐसे वर्णन पावस के प्रसंग में सूर ने बहुत अच्छे किए हैं। "निसि दिन बरसत नैन हमारे" बहुत प्रसिद्ध पद है। विरहोन्माद में भिन्न-भिन्न प्रकार की उठती हुई भावनाओं से रंजित होकर एक ही वस्तु कभी किसी रूप में दिखाई पड़ती है, कभी किसी रूप में। उठते हुए बादल कभी तो ऐसे भीषण रूप में दिखाई पड़ते हैं––

देखियत चहुँ दिसि ते घन घोरे।
मानौ मत्त मदन के हथियन बल करि बंधन तोरे॥
कारे तन अति चुवत गंड मद, वरसत थोरे थोरे।
रुकत न पवन-महावत हू पै, मुरत न अंकुस मोरे॥

कभी अपने प्रकृत लोक-सुखदायक रूप में ही सामने आते हैं और कृष्ण की अपेक्षा कही दयालु और परोपकारी लगते हैं––

बरु ये बदराऊ बरसन आए।
अपनी अवधि जानि, नँदनंदन! गरजि गगन धन छाए॥
कहियत है सुरलोक बसत, सखि! सेवक सदा पराए॥
चातक कुल की पीर जानि कै, तेउ तहाँ तें घाए॥
तृण किए हरित, हरषि बेली मिलि, दादुर मृतक जिवाए॥

'बदराऊ' के 'ऊ' और 'बरु' में कैसी व्यंजना है! 'बादल तक'––जो जड़ समझे जाते हैं––आश्रितों के दुःख से द्रवीभूत होकर आते हैं!