पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/३९

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प्रिय के साथ कुछ रूप-साम्य के कारण वे ही मेघ कभी प्रिय लगने लगते हैं––

आजु घन स्याम की अनुहारि।
उनै आए साँवरे ते सजनी! देखि, रूप की आरि॥
इँद्रधनुष मनो नवल बसन छवि, दामिनि दसन बिचारि।
जनु वग-पाँति माल मोतिन की, चितवत हितहि निहारि॥

इसी प्रकार पपीहा कभी अपनी बोली के द्वारा प्रिय का स्मरण कराकर दुःख बढ़ाता हुआ प्रतीत होता है और यह फटकार सुनता है––

हौं तो मोहन के बिरह जरी, रे! तू कत जारत?
रे पापी तू पंखि पपीहा! 'पिउ पिउ पिउ, अधिराति पुकारत॥
सब जग सुखी, दुखी तू जल बिनु, तऊ न तन की बिथहि बिचारत।
सूर स्याम बिनुब्रज पर बोलत, हठि अगिलोऊ जनम बिगारत॥

और कभी सम दुःख-भोगी के रूप में अत्यंत सुहृद जान पड़ता है और समान प्रेम व्रत-पालन के द्वारा उनका उत्साह बढ़ाता प्रतीत होता है––

बहुत दिन जीवौ, पपिहा प्यारो।
वासर रैनि नाँव लै बोलत, भयो बिरह-जुर कारो॥
आपु दुखित पर दुखित जानि जिय चातक[१]* नाम तिहारो।
देखौ सकल बिचारि, सखी! जिय बिछुरन को दुख न्यारों॥
जाहि लगै सोई पै जानै प्रेम-बान अनियारो।
सूरदास प्रभु स्वाति-बूंँद लगि, तज्यो सिंधु करि खारो॥

काव्य जगत् की रचना करनेवाली कल्पना इसी को कहते हैं। किसी भावोद्रेक द्वारा परिचालित अंतर्वृत्ति जब उस भाव के


  1. चातक=(चत्=माँगना) याचना करनेवाला।