पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/५

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पड़ी।[१] अतः यह तत्कालीन उद्वेगजनक प्रवृत्ति ही थी जिसका उच्छेद करने के लिए सूर ने 'सागर' की ये उत्ताल तरंगें लहराई। ज्ञान या योग की साधना भली न हो, सो नहीं। वस्तुतः वह कठिन है, सामान्य विद्या-बुद्धिवालों की पहुँच से परे है। पक्ष में उद्धव ऐसे ज्ञान-वरिष्ठ पुरुष और विपक्ष में ब्रजवासिनी ऐसी ज्ञान-कनिष्ठ स्त्रियों को खड़ा करके सूर ने ज्ञान एवं योग का प्रतिरोध साधारण जनता की दृष्टि से किया। ज्ञान की ऊँची तत्त्वचिंता उनके लिए नहीं। ज्ञानयोग के प्रतिपक्ष में प्रेमयोग का मंडन करके यह प्रतिपन्न किया गया है कि भक्ति की भी वही चरमावधि है जो ज्ञान की––

अहो अजान! ज्ञान उपदेसत ज्ञानरूप हमहीं।
निसिदिन ध्यान सूर प्रभु को अलि! देखत जित तितहीं॥

सूर ने ज्ञान या योगमार्ग को संकीर्ण, कठिन और नीरस तथा भक्तिमार्ग को विशाल, सरल और सरस कहा है। ज्ञान या योग का अभ्यासी विश्व की विभूति से अपनी वृत्ति समेटकर अंतर्मुख हो जाता है। इसलिए गुह्य, रहस्य एवं उलझन की वृद्धि होती है। पर भक्ति का अनुरागी बहिर्मुख रहता है। वह जगत् के विभूतिमत्, श्रीमत् और ऊर्जस्वित रूपों में अपनी वृत्ति रमाए रहता है।[२]। इसलिए दुराव-छिपाव से दूर रहता है। उसके लिए सब कुछ सुलझा हुआ है। इस प्रकार भक्ति का राजमार्ग


  1. ततस्ताः कृष्णसंदेशव्यपेतविरहज्वराः।
    उद्धवं पूजयांचात्वात्मानमधीक्षजम्॥ आदि।

  2. यद् यद् विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
    तत् तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥

    गीता––