चौड़ा, निष्कंटक और सीधा है। उसमें गोपन, रहस्य या उलझाव कहीं नहीं––
काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूँधो॥
राजपंथ तें टारि बतावत उरझ, कुबील, कुपैंड़ो।
सूरजदास समाय कहाँ लौं अज के बदन कुम्हैंड़ो॥
विश्व की विभूति में मन को रमाने का जैसा अवसर भक्तिभावना में है वैसा अंतःसाधना में नहीं। कल्याण का मार्ग अंतर्व्यापी नहीं, बहिर्व्यापी सत्ता से फूटता है––
दूरि नहीं दयाल सब घट कहत एक समान।
निकसि क्यों न गोपाल बोधत दुखिन के दुख जान॥
उर तें निकसि करत क्यों न सीतल जो पै कान्ह यहाँ है।
सगुणोपासना साधार होती है, मन को रमाती है। निर्गुणोपासना निराधार होती है, मन को चक्कर में डालती है––
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालंब मन चक्कृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहि तातें सूर सगुन-लीला-पद गावै॥
इसी से योग-साधना या निर्गुणोपासना नीरस कही गई है––
ए अलि! कहा जोग में नीको।
तजि रस-रीति नंदनंदन की सिखवत निर्गुन फीको॥
सूर कहौ गुरु कौन करै अलि! कौन सुनै मत फीको।
सगुण-निर्गुण के विवाद से उद्धव-प्रसंग इतना खिला कि और भी कई समर्थ कवि उस पर रीझे। नंददास ने भी भावभरा 'भँवरगीत' गाया। उसकी टेकमिश्रित गीतशैली भ्रमरगीत की विशिष्ट पद्धति ही मान ली गई