पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/५०

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कुंतल कुटिल भँवर भरि भाँवरि मालति भुरै लई।
तजत न गहरु कियो कपटी जब जानी निरस गई॥
आनन इँदुबरन संमुख तजि करखे तें न नई।
निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनी अन्तहि हेम हई॥
तन घनस्याम सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।
सूर विवेक-हीन चातक-मुख बूँदौ तौ न सई॥

इसी प्रकार दूसरे स्थान पर वे अपने नेत्रों के उपमानों को अनुपयुक्त ठहराती हैं––

उपमा एक न नैन गही।
कविजन कहत कहत चलि आए, सुधि करि करि काहू न कही॥
कहे चकोर, मुख-विधु बिनु जीवन; भँवर न, तहँ उड़ि जात।
हरिमुख-कमलकोस बिछुरे ते ठाले क्यों ठहरात?
खंजन मनरंजन जन जौ पै, कबहुँ नाहि सतरात।
पंख पसारि न उड़त, मंद ह्वै समर समीप बिकात॥
आए बधन व्याध ह्वै अधो, जौ मृग क्यों न पलाय।
देखत भागि बसै घन वन में जहँ कोउ संग न धाय॥
ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे? प्रति छिन अति दुख बाढ़त।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि संग न छाँड़त॥

दोनों उदाहरणों में उपमानों की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का जो आरोप किया गया है, वह हृदय के क्षोभ से उत्पन्न है, इसी से उसमें सरसता है, काव्य की योग्यता है। यदि कोई कठ हुज्जती इन्हीं उपमानों को लेकर कहने लगे––"वाह! नेत्र भ्रमर कैसे हो सकते हैं? भ्रमर होते तो उड़ न जाते। मृग कैसे हो सकते हैं? मृग होते तो ज़मीन पर चौकड़ी न भरते"। तो उसके कथन में कुछ भी काव्यत्व न होगा।