है। इनका भँवरगीत शुद्ध मुक्तक न होकर पद्य-निबंध के ढंग पर चला है। इसलिए। उसमें गोपी-उद्धव-संवाद सधा हुआ आया है। उत्तर प्रत्युत्तर भी तर्कबद्ध रीति पर है। सूर के भ्रमरगीत की सी विविधता उसमें नहीं, पर निबंध-रूप में होने से रसधारा का आनंद-प्रवाह अवश्य मिलता है। सूर के उद्धव की भाँति नंददास के उद्धव मौनाभ्यासी या अल्पभाषी नहीं है, भारी शास्त्रार्थी या विवादी हैं।
श्रीकृष्ण के वियोगवृत्त पर दो विशिष्ट रचनाएँ आधुनिक काल में भी प्रस्तुत हुई––एक रत्नाकर का 'उद्धव-शतक' और दूसरी सत्यनारायण कवि-रत्न का 'भ्रमर-दूत'। सूर के भ्रमरगीत में जो थोड़ी कमी थी वह 'उद्धव-शतक' में परिपूर्ण हो गई। कवित्त-शैली में कुछ नवीन उद्भावनाओं के साथ 'उद्धव-शतक' प्रस्तुत करके रत्नाकर ने अपनी कवित्व-शक्ति का सच्चा परिचय तो दिया ही, लाक्षणिक प्रयोगों और व्यंजक विधि की कसावट से भाषा-शक्ति का भी पूरा प्रमाण उपस्थित किया। इसमें भ्रमर का वृत्त नहीं आया है। 'भ्रमर-दूत' में देशप्रेम की भी व्यंजना करके कविरत्नजी ने उसे सामयिक रंग में बड़ी ही विदग्धता के साथ रँगा है। यशोदा या भारतमाता 'भ्रमर' को दूत बनाकर श्रीकृष्ण के पास द्वारका भेजती हैं। इसकी रीति नंददासवाली टेकमिश्रित है। इस प्रकार उद्धव एवं भ्रमर के वृत्तांत पर हिंदी में एक पृथक् ही वाङ्मय खड़ा हो गया है, जो बहुत ही रसीला और मर्मस्पर्शी है।
प्रस्तुत 'भ्रमरगीत' सूरसागर की सर्वोत्कृष्ट रत्नराजि है। स्वर्गीय आचार्य शुक्लजी ने सूरसागर को मथकर भ्रमरगीत-सार कोई चार सौ पदों में संचित किया था। संग्रह थोड़ा-थोड़ा करके कई बार में किया गया था और जैसे जैसे संग्रह होता जाता था पुस्तक छपती जाती थी। इसी से इसमें कुछ पद पुनरुक्त हो गए और कुछ अस्यानस्थ। यहाँ तक कि एक