पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/७२

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जुगुति जतन करि हमहुँ ताहि गहि सुपथ-पंथ लौं लायो।
भटकि फिर्यो बोहित के खग ज्यों, पुनि फिरि हरि पै आयो॥
ख) मधुकर! हम जो कहौ करैं।
पठयो है गोपाल कृश कै, आयसु तें न टरैं॥
रसना बारि फेरि नव खँड कै दैं निरगुन के साथ।
इतनी तनक बिलग जनि मानहु, अखियाँ नाही हाथ॥

ध्यान रखना चाहिए कि यह 'मति' संचारी भाव है, बुद्धि की स्वतंत्र निर्लिप्त क्रिया नहीं है। यह कृष्ण के प्रेम का आधार लेए हुए हैं। उद्धव का उपदेश गोपियों के मन में बैठा हो, यह बात नहीं है। वे बड़ी मुश्किल से उसे मानने का जो प्रयत्न कर रही हैं, वह केवल इस खयाल से कि कृष्ण ने कहलाया है और उनके ख़ास दोस्त कह रहे हैं। यह ख़याल आते ही फिर तो वे अपनी विवशता का अनुभव मात्र सामने रखती हैं। वे कहती हैं कि ज़बान तो कहो हम अभी 'निर्गुण' के हवाले कर दें; तुम्हारी तरह मुँह से 'नर्गुण निर्गुण' बका करें, या ज़बान ही कटा डालें- सब दिन के लिए मौन हो जायँ। पर आँखों से हम लाचार हैं; वे दर्शन की लालसा नहीं छोड़ सकतीं।

कभी कभी उनकी वृत्ति अत्यंत दीन और नम्र हो जाती है और उनके मुँह से ऐसे वचन निकलते हैं––

(क) ऊधो! हम हैं तुम्हरी दासी।
काहे को कटु बचन कहत हौ, करत आपनी हाँसी॥
(ख) अपने मन सुरति करत रहिबी।
अधो! इतनी बात स्याम सों समय पाय कहिली।
घोष बसत की चूक हमारी कछू न जिय गहिबी॥

कहाँ वह 'उग्रता' और कहाँ यह अदव से भरी 'दीनता'!