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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/८०

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ऐसे ही बाँकपन के साथ वे कृष्ण के रूप का ध्यान हृदय से न निकलने का कारण बताती हैं––

उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसहु निकसत नहिं, ऊधो! तिरछे ह्वै जो अड़े॥

जो लंबी चीज़ किसी बरतन में जाकर तिरछी हो जायगी वह बड़ी मुश्किल से निकलेगी। कृष्ण की मूर्ति का राधा जब ध्यान करने लगती हैं तब उनकी त्रिभंगी मूर्ति ही ध्यान में आती है, इसी से वह मन में अँटक-सी गई है, निकलती नहीं है।

वचन की जो वक्रता भाव-प्रेरित होती है, वही काव्य होती है। "वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्" से यही वक्रता अभिप्रेत है, वक्रोक्ति अलंकार नहीं। भावोद्रेक से उक्ति में जो एक प्रकार का बाँकपन आ जाता है, तात्पर्य-कथन के सीधे मार्ग को छोड़कर वचन जो एक भिन्न प्रणाली ग्रहण करते हैं, उसी की रमणीयता काव्य की रसणीयता के भीतर आ सकती है। भाव-प्रसूत वचन-रचना में ही भाव या भावना तीव्र करने की क्षमता पाई जाती है। कोई मनुष्य किसी को बड़ा बहादुर कह रहा है। दूसरे से सुनकर रहा नहीं जाता; वह कहता है––"हाँ! तभी न बिल्ली देखकर गिर पड़े थे"। कहने वाला सीधी तरह से कह सकता था––"वह बहादुर नहीं, भारी डरपोक है; बिल्ली देखकर डर जाता है"। पर इस सीधे वाक्य से उसका संतोष नहीं हो सकता था। भीरु को वीर सुनकर जो उपहास की उमंग उसके हृदय में उठी उसने श्रोताओं को भी उपहासोन्मुख करने के लिए बिल्ली से डरने को बहादुरी के सबूत में पेश करा दिया। काव्य की उक्ति का लक्ष्य किसी वस्तु या विषय का बोध कराना नहीं, बल्कि उस वस्तु या विषय के संबंध में कोई भाव या रागात्मक स्थिति उत्पन्न करना होता है। तार्क़िक जिस