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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/८२

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ताको कहा परेखो कीजै जानत छाँछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेरत ऊधो॥

हम अपने प्रेम या भक्ति के सीधे और चौड़े राजमार्ग पर जा रही हैं। उस मार्ग में तुम ये निर्गुण-रूपी काँटे क्यों बिछाते हो? हमारा रास्ता क्यों रोकते हो? जैसे तुम्हारे लिए रास्ता है वैसे ही हमारे लिए भी है। तुम अपने रास्ते चलो, हम अपने रास्ते। एक दूसरे का रास्ता रोकने क्यों जाय? भक्ति और ज्ञान के संबंध में सूर का यही मत समझिए। वे ज्ञान के विरोधी नहीं, भक्ति-विरोधी ज्ञान के विरोधी हैं। गोपियों से वे उद्धव की बातों के अंतिम उत्तर के रूप में कहलाते हैं––

बार बार ये बचन निवारो।
भक्ति-विरोधी ज्ञान तिहारो॥

मनुष्यत्व की पूर्ण अभिव्यक्ति रागात्मिका वृत्ति और बोध-वृत्ति दोनों के मेल में हैं। अतः इनमें किसी का निषेध उचित नहीं। कोई एक की ओर मुख्यतः प्रवृत्त रहता है, कोई दूसरे की ओर। कुछ ऐसे पूर्ण-प्रज्ञ भी होते हैं जिनमें हृदय-पक्ष और बुद्धि-पक्ष दोनों की पूर्णता रहती है। वल्लभाचार्यजी ऐसे ही थे।

सूरदासजी वल्लभाजार्यजी के शिष्यों में से थे। वल्लभाचार्यजी ज्ञान-मार्ग की ओर तो वेदांत की एक शाखा के प्रवर्त्तक थे और भक्ति-मार्ग की ओर एक अत्यंत प्रेमोपासक संप्रदाय के वल्लभाचार्यजी का अद्वैतवाद 'शुद्धाद्वैत' कहलाता है। रामानुजाचार्यजी ने अद्वैत को दो पक्षों (चित् और अचित्) से युक्त या विशिष्ट दिखाया था। वल्लभ ने यह विशिष्टता हटाकर ब्रह्म को फिर शुद्ध किया। उन्होंने निरूपित किया कि सत् चित् और आनंद स्वरूप ब्रह्म अपने इच्छानुसार इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव (विकास)