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मतिराम-ग्रंथावली


प्रकार के अश्रुपात से विरहिणी के दोनो उन्नत उरोज भीग रहे होंगे, पर बात ऐसी नहीं है। विरह के कारण वे इतने संतप्त हैं, उनमें इतनी अधिक गर्मी है कि उन तक आँसू पहुँचने ही नहीं पाते । बीच ही में सूखकर रह जाते हैं। बस, ऐसा जान पड़ता है, मानो आसमान से तारे टूट-टूटकर गिर रहे हैं, और पृथ्वी पर पहुँचने के पहले ही संपूर्ण नष्ट हो जाते हैं-

"बिरह-तचे तिय-कुचनि लौं, असुवा सकत न आय;

गिरि उड़गन ज्यों गगन तें, बीचहि जात बिलाय।"

(४) विरहिणी नायिका के निकट आने में भी नोंद को डर लगता है। वह देखती है, विरहिणी के नेत्रों से ऐसा अविरल अश्रु-प्रवाह जारी है कि उसे पार किए विना नेत्रों तक पहुँच नहीं। नींद को साहस नहीं कि वह इस गंभीर प्रवाह को पार कर लेगी। उसका विश्वास है कि वह इसमें पड़ी नहीं कि डूबी नहीं, फिर कहीं की भी न रह जायगी। ऐसी दशा में 'आत्मानं सततं रक्षेत्'-जैसे नीति-वचन का अनुसरण करती हुई वह यदि नायिका के नेत्रों के निकट नहीं फटकती, तो क्या आश्चर्य है ? विरहिणी को नींद न आने का कैसा मनोरम कारण मतिरामजी ने ढूँढ़ लिया-

"असुअन के परवाह मैं, अति बूडिबे डेराति;

कहा करै ? नैनानि को, नींद नहीं नियराति ।"

(५) आँच पाकर स्नेह (स्निग्ध पदार्थ तैल, घी आदि) में उफान आ जाता है। फिर भला विरहानल के आधिक्य में नायिका के शरीर में स्नेह (प्रेम) की उद्दीप्त अवस्था क्यों न दिखाई पड़े ?

"ज्यों-ज्यों बिषम बियोग की अनल-ज्वाल अधिकाय,

त्यों-त्यों तिय के देह मैं नेह उठत उफनाय ।"

(६) कामदेव 'अनंग' है। उसके शरीर नहीं है। अपने इस