सतसई में विरह का वर्णन बहुत उत्कृष्ट हुआ है। कविवर देव
तथा बिहारीलालजी का विरह-वर्णन तो अच्छा है ही, पर मतिरामजी
ने भी एतादृश वर्णन में अपनी प्रतिभा का खासा चमत्कार दिखलाया
है। मतिराम सतसई की प्राप्त प्रति में से कुछ दोहों का यहाँ संक-
लन किया जाता है-
(१) विरहाधिक्य की यह दशा है कि सखियाँ नित्यप्रति जो कुछ उद्योग करती हैं, उससे विरह-शांति तो होती नहीं, हाँ, विपत्ति बढ़ती जाती है। विरह-ताप इतना अधिक हो गया है कि शीतलता पहुँचाने के लिये उरोजों में यदि कमल-पुष्पों का स्पर्श करा दिया जाता है, तो वे झुलस जाते हैं-
"सखिन करत उपचार अति, परति बिपति उत रोज; झुरसत ओज मनोज के, परस उरोज सरोज।" ___ उपर्युक्त दोहे में अनुप्रास का जैसा कुछ चमत्कार मतिरामजी ने उपस्थित कर दिया है, वह सर्वथा दर्शनीय है।
(२) विरहिणी के अंग-ताप का निवारण करने को सखियों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने कमल के पत्तों में खूब गाढ़ा-गाढ़ा चंदन लगाया, और फिर उनको नायिका के अंगों पर चिपका दिया। आशा थी कि इससे विरह-संताप बहुत कुछ दूर होगा, पर घटना और ही प्रकार से घटी । 'पुरैन' के इन चंदन-पंकिल पत्तों का नायिका के अंगों से स्पर्श होते ही वे सब ऐसे झुलस गए, मानो आग में पापड़ भूने गए हों। कैसी अनूठी उक्ति है ! कैसी सुंदर सूझ है !
जागत ओज मनोज के परसि तिया के गात-
पापर होत पुरैनि के चंदन-पंकिल पात।"
(३) विरह-विधुरा नायिका रुदन कर रही है। बड़े-बड़े आँसू नेत्रों से झर-झरकर नीचे गिर रहे हैं। आप समझते होंगे कि इस