पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१०४
मतिराम-ग्रंथावली


देखने से कवि के कौशल का दर्शन तो होता ही है; पर प्रायः यह बात भी निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि 'सतसई' और 'रसराज', दोनो का रचयिता एक ही कवि है। इस प्रकार के केवल दो उदा- हरण यहाँ दिए जाते हैं-

"बाल लाल-मुख सौति को सुनो नाम परकास;

बरखै बारिद सैन पर उड्यो हंस-सम हास।"

"दोऊ अनंद सों आँगन माँझ बिराजे असाढ़ की साँझ सुहाई प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई । आयो उन्हें मुंह मैं हँसी, कोपि तिया सुरचाप-सी भौंहैं चढ़ाई; आँखिन ते गिरे आँसू के बूंद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाई।"

सवैए की व्याख्या अन्यत्र मौजूद है । यहाँ इतना ही लिखना पर्याप्त है कि एक ही भाव दो भिन्न छंदों में होने पर भी वह अपने मुख्य चमत्कार को स्थिर रखने में पूर्ण रीति से समर्थ हुआ है-

"अनमिख नैन, कहै न कछु, समुझै-सुनै न कान;

निरखे मोर-पखान के भई पखान-समान ।"

“संघे न सुबास, रहै राग-रंग ते उदास,

भूलि गई सुरति सकल खान-पान की;

कवि 'मतिराम' इकटक, अनमिख नैन,

बूझै न कहति बैन, समुझे न आन को ।

थोरी-सी हँसनि औं' ठगोरी ऐसी डारि ठग,

बारी करी भोरी ते किशोरी बृषभानु की;

तब ते बिहारी, वह भई है पखान-कैसी,

जब ते निहारी रुचि मोर के पखान की।"

दोहे को देखकर बिहारी का और कवित्त को देखकर देव का स्मरण होता है । धन्य मतिराम ! तुममें बिहारी और देव, दोनो के ही वर्णन-शैली-संबंधी गुण वर्तमान हैं।