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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१०९

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समीक्षा

 

स्फुट सूक्तियाँ

सतसई की प्राप्ति प्रति में सुंदर सूक्तियों की अधिकता है। एक से बढ़कर एक भाव मौजूद हैं। कोई भी दोहा शिथिल नहीं दिखलाई पड़ता। ऐसी दशा में संकलन-कार्य बड़ा कठिन है। फिर भी कुछ सूक्तियाँ नीचे उद्धृत की जाती हैं—

(१) श्रीकृष्ण की मुरली बज रही है। उसका मधुर रव गोपियों के कानों में गूंज रहा है। इस सरस नाद का स्वाद उन्हें आनंदमय अनुभव हो रहा है। उनका तो कहना है कि श्यामसुंदर के अधरों की माधुरी ही इस नाद-रूप में निकलकर चारो ओर व्याप्त हो रही है। कैसा ऊँचा विचार है! कितनी दूर की सूझ है!—

"सुनि-सुनि गुन सब गोपिकनि समझो सरस सवाद;
कढ़ी अधर की माधुरी ह्वै मुरली को नाद।"

(२) नंदलालजी, देखिए तो, छत पर यह कैसा सौंदर्य है? यह स्थिर दामिनी कैसी? क्या चंचला ने चपलता त्याग दी? यह निष्कलंक चंद्रमा कैसा? क्या चंद्रमा का कलंक जाता रहा? कैसा अभूतपूर्व व्यापार है? स्थिर दामिनी तथा निष्कलंक चंद्रमा के समान नायिका का परिचय कवि ने किस हस्तलाघव के साथ दिया है—

"अटा ओर नंदलाल, उत निरखौ नैक निसंक;
चपला चपलाई तजी, चंदा तज्यो कलंक।"

(३) अरी मानिनी, मान जा, इस शरत्कालीन ज्योत्स्ना में तेरे चित्त में क्या कुछ भी काम-पीड़ा नहीं उत्पन्न हो रही है? देख, मित्र के शरीर की आभा हरिद्रा से भी अधिक पीली पड़ गई है—

"हरद-बरन ते अधिक बढ़ि जरद होत वह मित्त;
सरद-जोन्ह मैं मानिनी, दरद न आवत चित्त।"

(४) अरे, यह वनमाला तो सदा ही श्रीकृष्णचंद्र के हृदय से लगी रहती है। इस कारण इसकी खबर भली भाँति लेनी चाहिए,