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मतिराम-ग्रंथावली


(१०) नायिका के नेत्रों से अश्रु-धारा बह रही है । आँखों में काजल रहने से आँसू भी काजल के वर्णवाले हो रहे हैं, उधर नेत्रों की छवि मीन के समान है, सो कज्जल-कलित अश्रु-प्रवाह तो नील दंड के समान शोभा पा रहा है, और उस पर नेत्र मछली के समान स्थित हैं, बस, कामदेव की पताका की अनुरूपता हो रही है-

"अंजन-जुत अँसुवा ढरत, लोचन मीन-समान;

लसत नील मनि-दंड-जत मनो मनोज-निसान ।"

(११) आप चाहे जितना अपराध करें, पर वह रुष्ट नहीं होने की । ऐसे कौन-से दोष हैं, जो प्रियतम के स्नेह-सागर में नहीं डब जाते । वास्तविक स्नेह होने से फिर सभी दोष मिट जाते हैं-

"करौ कोटि अपराध तुम, वाके हिए न रोष;

नाह-सनेह-समुद्र मैं बूड़ि जात सब दोष।"

(१२) विप्रलब्धा की रात्रि और वामन महाराज के शरीर की समता पर भी ध्यान दीजिए । कैसी अनूठी सूझ है-

"प्रथम अरध छोटी लगी, पुनि अति लगी विशाल;

बामन-कैसी देह निसि भई बाल को लाल !"

परकीया और वेश्या

संस्कृत और व्रजभाषा-काव्य में शृंगार-रस के अंतर्गत नायिका- भेद का वर्णन बड़ी ही सुंदरता और बारीकी से किया गया है। अनेक सज्जन शृंगार-रस में स्वकीया नायिका के भेद और भेदांतरों तक तो 'नायिका-भेद' की उपयोगिता स्वीकार करते हैं, पर इसके आगे परकीया और गणिकाओं के संबंध में होनेवाले वर्णनों को वे केवल कुरुचि-प्रवर्तक मानते हैं । लेखक भी परकीया और गणिका- वर्णन को आदर की दृष्टि से नहीं देखता, पर इस विषय में प्राचीन कवियों के जो वर्णन हैं, उनमें कहीं-कहीं भाव-चमत्कार बड़े ही अनूठे हैं । इन वर्णनों को पढ़कर यदि अपरिपक्व समझ और