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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/११५

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१११
समीक्षा

कहीं नायिका को पीड़ा न पहुँचे। बस, इसी विचार से उनकी बाँधी वेणी ढीली रह गई। सखी इन सब बातों को समझ गई, इसलिये नायिका के भौंह चढ़ाने की परवा न करके उसने सब कुछ कह डाला।

मतिराम के इस छंद में सूक्ष्म दृष्टि और स्वाभाविकता का अपूर्व सम्मिलन हुआ है। बुद्धि पर ज़रा-सा ज़ोर देने से मतिराम की अनोखी काव्य-कला का परिचय होता है। माधुर्य तो छंद में लबा-लब भरा हुआ है। "बात के बूझत ही 'मतिराम' कहा करिए, भटू भौंह तनेनी" में स्वाभाविकता कूट-कूटकर भरी गई है। मनुष्य-प्रकृति के पारखी होने का सच्चा प्रमाण दिया गया है। 'दासजी' ने अपने 'रस-सारांश, में मतिराम के इस भाव का अपहरण किया है, पर दोहे में मतिराम के हाथ की वह सफ़ाई कहाँ—

"प्रगट कहै ढीली कसनि, चुवत स्वेद-कन-जाल;
ऐनिनैनि ऐनी भई बेनी गुहौ गोपाल।"

छंद के काव्यांगों की आलोचना करने के लिये कम-से-कम इतना ही स्थान और चाहिए, इसलिये उस पर विचार न करेंगे।

(२)

संकेत-स्थल में प्रियतम के मिलने को जाकर, वहाँ उनके आग- मन की प्रतीक्षा में चितित होनेवाली नायिका को उत्कंठिता कहते हैं। मतिराम के रसराज से एक ऐसी ही उत्कंठिता का चित्र नीचे दिया जाता है। इस छंद का अंतिम पद अनमोल है। नेत्रों की विविध अवस्थाओं का लक्ष्य करके उनकी क्रम से मीन, कंज, खंजन और चकोर से उपमा दी गई है। मछली से नेत्रों की समता उनकी चंचलता और दीर्घता दर्शित करती है। नेत्र किसी की खोज में हैं। वे उससे मिलने को व्याकुल हो रहे हैं। फिर उनको आशा होती है। वे अपनी सहज सुघराई के साथ प्रफुल्लित हो उठते हैं। अब उनमें