अस्थिरता के स्थान में स्थिरता आ जाती है। वे विकसित अरविंद का रूप धारण करते हैं। पर जिस आशा ने उन्हें 'मीन', 'कंज' किया था, उसी के फली भूत न होने से उनमें निराशा-प्रेरित अस्थिरता का पुनः प्रादुर्भाव होता है, या विशेष आशान्वित होकर प्रिय-मिलन को अत्यंत समीप जानकर वे खंजन के समान थिरकने लगते हैं। काजल दुख या सुख के अश्रुओं में गलित होकर नेत्रों को ऐसा सित-स्याम कर देता है कि बस शरद् के खंजन भुलाए ही नहीं भूलते। निराशा का पुनः प्रस्थान हो, या आशा का प्रबलतम प्रादुर्भाव हो—अब की नेत्रों को स्थिरता देखते ही बनती है। 'शरद-शशिहि जनु चितव चकोरी' की उपमा पूरी उतरती है। आशा और निराशा वायु से विकंपित या आशावायु के प्रबल, प्रबलतर और प्रबलतम झोंकों से आक्रांत नेत्रों की परिवर्तनशील शोभा का चित्रण छंद में मार्के का हुआ है—
"जमुना के तीर बहै सीतल समीर जहाँ,
मधुकर मधुर करत मंद सोर है;
'कबि मतिराम' तहाँ छबि-सी छबीली बैठी,
अंगन ते फैलत सुगंध की झकोर है।
पीतम बिहारी के निहारिबे की बाट ऐसी,
चहूँ ओर दीरघ दृगन करी दौर है।
एक ओर मीन मनो, एक ओर कंज-पंज,
एक ओर खंजन, चकोर एक ओर है।"
यमुना का जल मीन और कंज की सहज ही याद दिलाता है। सामने ही विकसित अरविंद और सुख से तैरती हुई मछलियाँ मौजूद हैं। केवल शीतल समीर बहता है। इससे जान पड़ता है कि घटना शरत्काल की है। शरद् में खंजन होते ही हैं। चकोर की शरच्चंद-प्रीति परम प्रसिद्ध है। अस्तु, मतिरामजी ने अपनी सूक्ष्म-दर्शिता के बल से