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मतिराम-ग्रंथावली


अर्थात् मीठी बातचीत वास्तविक प्रेम के परिचायक हैं ? नहीं, सुबरन (स्वर्ण) नायक को इस बात की याद दिलाने को हैं कि स्वर्ण देने का वादा किया था, वह अब मिलना चाहिए। हँसी भी हुई है; पर यह हंसी भी प्रेम की कली खिलानेवाली रात की पुरवाई नहीं है, वरन् इस बात की याद-दिहानी है कि हास्य के समान उज्ज्वल हीरे कब मिलेंगे। आनंदाश्रु-प्रवाह भी हुआ है; पर ये आँसू उन मोतियों की याद में गिरे हैं, जिनका वसूल करना नायक से परमावश्यक है। सुबरन से सोने, हास्य से हीरे और अश्रु से मोतियों की माँग हो गई। चतुर नायक सब बात समझ गया। पहले दिन के मिलाप में भी धन की ही प्राप्ति का खयाल रहा । प्रेम का प्रभाव कहाँ है ? फिर भी मूढ़ नायक गणिका का साथ नहीं छोड़ता? ऐसे विषय-जन्य प्रेमाभास को धिक्कार तथा ऐसे नायकों की कुमति पर बार-बार फटकार है-

"नागर बिदेश मैं बिताय बहु द्यौस आयो,

नागरि के हिए मैं हुलासनि की खानि की;

कबि 'मतिराम' अंक भरिके मयंकमुखी,

नेहै सरसाय मति कीनी सुखदानि की।

सुबरन बोलिक बतावति है सुबरन,

हीरन बतावति है छबि मुसकानि की;

आँखिन ते आनंद के आँसू उमँगाय प्यारी,

प्यारे को दिवावति सुरति मुकतान की।"

कविराजा मुरारिदान ने अपने जसवंत-जसोभूषण में इस छंद को पर्यायोक्ति अलंकार के उदाहरण में उद्धृत किया है ।

दोष या गुण

कविवर मतिराम के काव्य में अनेक स्थल ऐसे हैं, जिनके विषय में विद्वानों में मतभेद है । कुछ लोगों की राय से मतिराम वहाँ अपने