भाव-पूर्ण रीति से निबाहने में समर्थ नहीं हो सके—उनकी कविता सदोष हो गई है। पर कुछ विद्वानों का कहना है कि मतिराम ने वहाँ अपना पांडित्य दिखलाया है, उनसे भूल नहीं हुई। उन्होंने जान-बूझ-कर सहृदय और विद्वान् पाठकों के खोलने के लिये कुछ मनोरंजक और सरस ग्रंथियाँ लगा दी हैं। इन ग्रंथियों का मोचन होते ही पाठकों को कवि की मर्मज्ञता और रसज्ञता प्रकट हो जाती है। यहाँ हम तीन-चार ऐसी कविताएं उद्धृत करते हैं। सहृदय पाठक स्वयं निर्णय कर लें कि वे सदोष हैं अथवा गुणमयी—
(१)
"क्यों इन आँखिन सों निरसंक ह्वै मोहन को तन-पानिप पीजै;
नेकु निहारे कलंक लगै, यहि गाँव गँवार मैं कैसक जीजै।
होत रहै मन यों ‘मतिराम', कहूँ बन जाइ बड़ो तप कीजै;
ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधरारस लीजै।"
रसराज में यह छंद परकीया के भेदांतर ऊढ़ा के उदाहरण में दिया गया है। ऊढ़ा उसे कहते हैं, जो ब्याही और पुरुष को हो, और रसलीन हो दूसरे पुरुष से। जो समालोचक उपयुक्त छंद को सदोष बतलाते हैं, उनका आक्षेप यह है कि छंद की शब्दावली में ऊढ़त्व की सूचना देने में कवि असमर्थ रहा है। संभव है, छंद में जिस सुकुमारी की कात-रोक्ति है, उसका विवाह ही न हुआ हो। सामाजिक नियमों से जकड़ी हुई—गुरुजन की लज्जा से किंकर्तव्य-विमूढ़, यौवन में प्रवेश करनेवाली किसी कन्या का भी तो यह कथन हो सकता है! क्या प्रेम की चोट खाई हुई कोई अविवाहिता कन्या इस प्रकार की उक्ति नहीं कह सकती? फिर उसे ऊढ़ा क्यों माने? इसके उत्तर में दूसरे पक्ष का कथन यह है कि कवि ने छंद में ऊढ़त्व पूर्ण रीति से स्थापित कर दिया है; उसे समझने के लिये सूक्ष्मदर्शिता अपेक्षित है। छंद के तीसरे और चौथे पद पर बारीक निगाह डालने से कवि की मर्म-