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मतिराम-ग्रंथावली

(४)

“साँझ ही सिंगार साजि प्रानप्यारे-पास जाति,

बनिता बनिक बनी बेलि-सी अनंग की;

कबि मतिराम' कल किंकिनी की धुनि बाजे,

मंद-मंद चलनि बिराजति गयंद की।

केसरि रंग्यो दुकूल, हाँसी मैं झरत फूल,

केसनि में छाई छबि फूलनि के बृद की;

पीछे-पीछे आवति अँधेरी-सी भँवर-भीर,

आगे-आगे फैलति उज्यारी मुख चंद की ।"

यह गणिका अभिसारिका का उदाहरण है । आक्षेप यह है कि यह कैसे माना जाय कि यह गणिका अभिसारिका है ? गणिकात्व की सूचना तो धन के लालच से होती है । वह कहीं छंद में पाया नहीं जाता । दूसरी चिंत्य बात यह है कि संध्या (निशा-प्रारंभ) में भ्रमरों का वर्णन कैसा ? समर्थनकारी पक्ष का कथन है कि साहित्य-दर्पण में वेश्याभिसारिका का जो लक्षण है, वह मतिराम के उपर्युक्त छंद पर पूरा उतरता है । नायिका विचित्र और उज्ज्वल वेष में, खुल्लमखुल्ला, बेधड़क कंकणों को झनकाती, आनंद से मुस्काती चली जा रही है, इसीलिये वह वेश्या अभिसारिका है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं। छंद में धन के लालच की सूचना भी उनकी राय में है। उनका कहना है कि 'बनिता बनिक बनी बेलि-सी अनंग की' का यह अर्थ है कि वह काम-वणिक् की स्त्री बनी हुई है। वणिक् क्रय-विक्रय इसीलिये करता है कि अर्थ-लाभ हो। अनंग-वणिक् की वनिता में भी यह भाव आ गया। इससे धन के लालच का भाव भी आ गया । कहीं-कहीं बनिए की स्त्री को भी 'बनी' कहते हैं । उस अवस्था में यह अर्थ करना होगा कि अभिसारिका की बनक बनी के समान है । क्रय-विक्रय और धन-लोभ का भाव इससे भी सूचित हो गया। यों वेश्याभिसारिका