पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१२७

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(७) मतिराम की कविता में कहीं-कहीं शब्दों का प्रयोग बेढंगा हुआ है । अन्य भाषा के कई शब्दों का भी यह ठीक व्यवहार नहीं कर सके, पर ऐसे उदाहरण बहुत ही थोड़े पाए जाते हैं ।

(८) मतिराम की कविता में प्राकृतिक वर्णन बहुत ही कम पाए जाते हैं।

ऊपर जिन दूषणों का उल्लेख हुआ है, उनके कुछ फुटकर उदा- हरण भी दिए जाते हैं-

(१)

"बारबिलासिनि कोटि हुलास बढ़ाइ के अंग सिंगार बनायो

प्रीतम-गेह गई चलिक, 'मतिराम' तहाँ न मिल्यो मनभायो।

संग-सहेली सो रोष कियो, नहिं आपुन को यह दोष लगायो;

हाय ! कियो मैं मतो यह कौन, जो आपने भौन न बोलि पठायो?"

उपर्युक्त शब्द में कला का नैपुण्य और तन्मयता, दोनों का ही अभाव है।

(२)

"परम प्रबीन, धीर, धरम-धुरीन, दीन-

बंधु, सदा जाकी परमेसुर मैं मति है।

दुज्जन बिहाल करि, जाचक निहाल करि,

जगत मैं कीरति जगाई जोति अति है।

राव सत्रुसाल को सपूत पूत भावसिंह,

'मतिराम' कहै, जाहि साहबी फबति है।

जानपति, दानपति, हाड़ा-हिंदुवानपति,

दिल्लीपति, दलपति बलाबंध-पति है।"

उपर्युक्त छंद में कोरा कला-नैपुण्य है । सो भी बहुत ही साधा- रण ढंग का । तन्मयता की तो छंद में कोई बात ही नहीं । प्रथम पद में 'दीनबंधु' के दो टुकड़े होकर एक एक यति में तथा दूसरा दूसरी