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मतिराम-ग्रंथावली


उद्दीपन विभाव की पूर्ति करते हैं। जेठी के आग्रह पर नायिका का जाना उसकी लज्जा दर्शाता है, जिससे लज्जा संचारी का भी प्रस्फुटन हो जाता है। नायिका को देखकर हंसना और उसको अपने पास बुलाना कायिक अनुभाव हैं। लज्जा-वश नायिका नायक की मनस्तुष्टि नहीं कर सकी है, इससे बिहृत हाव भी हो जाता है। नायक की रति-इच्छा ही स्थायी भाव है । इस प्रकार आलंबन उद्दीपन विभावों द्वारा उत्थित एवं परिपुष्ट तथा संचारी भाव की सहायता प्राप्त अनु- भाव द्वारा पूर्णता को पहुंचाता हुआ रति स्थायी संयोग-शृंगार का समुचित रस-परिपाक करता है ।

गण-कविवर मतिरामजी की कविता का पेटेंट गुण प्रसाद है। वही गुण इस छंद में भी मौजूद है।

वृत्ति-रीति-वृत्ति कैशिकी और रीति वैदर्भी है ।

पात्र-शुद्धस्वभावा स्वकीया आधार और वाच्यार्थ मुख्य होने से वाचक पात्र है। कई जगह लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्य का इशारा अवश्य है, पर प्रधानता वाच्यार्थ की ही समझ पड़ती है।

काव्य-मध्यम काव्य है।

अश्लीलता-दोष-साहित्य-दर्पण की कारिका नं० ६०० के अनुसार-

“सुरतारम्भगोष्ठ्यादावश्लीलत्वं तथा पुनः (गुणो भवेत्) ।"

। उपर्युक्त छंद में इस दोष का आरोपण नहीं हो सकता। बृहस्पति- स्मृति में मैथुन के आठ अंग माने गए हैं, जिनमें से एक केलि भी है। केलि अश्लीलता का प्रतिपादक नहीं है। हिंदी-शब्द-सागर के पृष्ठ ६२८ पर केलि का प्रथम अर्थ खेल और क्रीड़ा दिया हुआ है। मतिराम ने 'केलि' शब्द का व्यवहार संभवतः इसी अर्थ में किया है, क्योंकि आगे 'घात'-शब्द का प्रयोग हुआ है। घात और खेल का साथ-साथ प्रयोग सूरदास तक ने किया है । यथा-