पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१४१

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समीक्षा


समान गुण नायिका में भी पाकर) उसको अपनी सखी जानती है। लज्जा (उसको पहले से ही लजीली पाकर) उसको अपने से बड़ा मानती है। तथा प्रीति (उसके स्नेहमय होने के कारण) उसको अपनी सबसे प्यारी वस्तु गिनती है।

नायिका सपत्नी (और उसके साथ के भाव अर्थात् ) अनीति को समझती है । सखी और सुनीति, गुरुजन और लज्जा तथा प्रियतम और प्रीति आदि के साथ जो अभिन्नता का भाव है, उसको वह सम्यक् जानती है।

उपर्युक्त छंद-विशेष 'दोहा' के नाम से भाषा-काव्य में प्रसिद्ध है। यह वर्णन स्वकोया नायिका का है । नायक और नायिका के आलंबन से इसमें श्रृंगार-रस है। सखी की सुनीति से रस की उद्दीप्ति होती है। गुरुजन की लाज से लज्जा संचारी का काम पूरा पड़ता है। प्रियतम की प्रीति से अनुभाव की ओर अंगुलिनिर्देश है । नायिका नागर है, यह बात स्पष्ट ही है । प्रसाद-गुण, मधुरा वृत्ति एवं वैदर्भी रीति से दोहा विलसित होता है। शुद्ध-स्वभावा स्वकीया, जिसकी सखी सुनीति जाननेवाली है, वाचक पात्र की आधार है । उपर्युक्त छंद में व्यंग्यार्थ मुख्य नहीं है । लक्ष्यार्थ और विशेष करके वाच्यार्थ से ही काम चलता है, सो यह मध्यम काव्य है। अलंकारों की उपर्युक्त दोहे में अच्छी बहार है-

(१) दूसरे अर्थ को लक्ष्य में रखकर देखने से विदित है कि उसी नायिका को सौति, सखी, गुरुजन और प्रियतम आदि अनेक जन अनेक प्रकार से जानते हैं, इस कारण यह उल्लेख-अलंकार का प्रथम भेद हुआ।

(२) प्रथम अर्थ पर लक्ष्य रखते हुए नायिका का सौति को अनीति जानना, सौति और अनीति के अनुरूप वर्णन हुआ। उसी प्रकार सखी सुनीति, गुरुजन लाज और प्रियतम प्रीति का भी अनुरूप वर्णन हुआ। यह 'सम'-अलंकार का रूप है।