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मतिराम-ग्रंथावली


३. विषम-नायिका के सम्मिलन-रूप इष्ट के उद्यम करने पर भी अनिष्ट की ही अवाप्ति हुई, अर्थात् नायिका नहीं मिली। इससे विषम हुआ।

४. विशेषोक्ति-पुष्कल कारण रहते भी-नायिका के पर की देहरी पर ( जहां नायक अकेला नायिका की प्रतीक्षा कर रहा था) पहुँचते हुए भी इच्छा की पूर्ति न हो सकने से विशेषोक्ति-अलंकार हुआ।

५. अनुप्रास-हसि हेरि हिए' में वृत्त्यनुप्रास स्पष्ट ही है।

६. संसृष्टि-स्वभावोक्ति, पर्यायोक्ति एवं अनुप्रास की संसृष्टि तिल-तंडुल-न्याय से की जा सकती है।

७. संकर-विशेषोक्ति और विषम एक-दूसरे से भिन्न नहीं किए जा सकते । उनमें नीर-क्षीर का सम्मिलन है, इससे संकर हुआ

(४)

"जानति सौति अनीति है, जानति सखी सुनीत;

गुरुजन जानति लाज है, प्रीतम जानति प्रीति ।"

१. नायिका अपनी सपत्नी को अनीति, सखी को सुनीति, गुरु- जन (बड़े-बूढ़ों) को लज्जा और प्राण-प्यारे को प्रीति समझती है।

२. नायिका-विशेष को सपत्नी अनीति, सखी सुनीति, गुरुजन लज्जा और प्राण-प्यारा प्रीति मानता है।

३. नायिका अनीति (दोष-विशेष) को ही अपनी सपत्नी सम- झती है। (उसी प्रकार) सुनीति (गुण-विशेष) को अपनी सहेली, लज्जा को अपना गुरुजन और प्रीति (प्रणय) को अपना प्रियतम जानती है।

४. (संसार में जो) अनीति है, वह (इस नायिका-विशेष में अपने से अभिन्न दोषों को न पाकर-इससे अप्रसन्न होकर ) इस नायिका को अपनी सपत्नी समझती है। (वैसे ही) सुनीति (अपने