सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३६
मतिराम-ग्रंथावली

  ३. विषम—नायिका के सम्मिलन-रूप इष्ट के उद्यम करने पर भी अनिष्ट की ही अवाप्ति हुई, अर्थात् नायिका नहीं मिली। इससे विषम हुआ।

४. विशेषोक्ति—पुष्कल कारण रहते भी—नायिका के पर की देहरी पर (जहां नायक अकेला नायिका की प्रतीक्षा कर रहा था) पहुँचते हुए भी इच्छा की पूर्ति न हो सकने से विशेषोक्ति-अलंकार हुआ।

५. अनुप्रास—हॅंसि हेरि हिए में वृत्त्यनुप्रास स्पष्ट ही है।

६. संसृष्टि—स्वभावोक्ति, पर्यायोक्ति एवं अनुप्रास की संसृष्टि तिल-तंडुल-न्याय से की जा सकती है।

७. संकर—विशेषोक्ति और विषम एक-दूसरे से भिन्न नहीं किए जा सकते। उनमें नीर-क्षीर का सम्मिलन है, इससे संकर हुआ।

(४)

"जानति सौति अनीति है, जानति सखी सुनीत;
गुरुजन जानति लाज है, प्रीतम जानति प्रीति।"

१. नायिका अपनी सपत्नी को अनीति, सखी को सुनीति, गुरु-जन (बड़े-बूढ़ों) को लज्जा और प्राण-प्यारे को प्रीति समझती है।

२. नायिका-विशेष को सपत्नी अनीति, सखी सुनीति, गुरुजन लज्जा और प्राण-प्यारा प्रीति मानता है।

३. नायिका अनीति (दोष-विशेष) को ही अपनी सपत्नी समझती है। (उसी प्रकार) सुनीति (गुण-विशेष) को अपनी सहेली, लज्जा को अपना गुरुजन और प्रीति (प्रणय) को अपना प्रियतम जानती है।

४. (संसार में जो) अनीति है, वह (इस नायिका-विशेष में अपने से अभिन्न दोषों को न पाकर—इससे अप्रसन्न होकर) इस नायिका को अपनी सपत्नी समझती है। (वैसे ही) सुनीति (अपने