आएगी। यह शंका की जा सकती है कि प्रीतम की जानकारी सबसे पहले होनी चाहिए। परंतु दोहे में मतिराम को नायिका के प्रति आदराधिक्य का कम से उत्कर्ष दिखलाना था, इसी कारण उन्होंने प्रीतम को सबसे अंत में रक्खा, जिसका आदर नायिका के प्रति सपत्नी, सखी और गुरुजन सबसे अधिक था। दासजी ने प्रियतम को पहले तो रख दिया, परंतु आगे निर्वाह न कर सके—परोसिनों ने उसे सुनीति जाना। वह वर नारियों में सिरताज गिनी गई, पर किसके द्वारा, यह स्पष्ट नहीं। व्रज की युवतियों ने उसे सराहा। फिर सौतें उसको हलाहल समझने लगीं, और सखियाँ शील-सुधामयी। इसमें कोई कम नहीं है। पतत्प्रकर्ष भले ही हो। इतने लंबे छंद का प्रयोग करके भी दासजी न भाव को उत्कृष्ट कर सके, न सजावट में ही कोई नूतनता आई। 'निमनी' का प्रयोग अवश्य हुआ, पर प्रश्न यह है कि इसने सौंदर्य बढ़ाया या बिगाड़ा? हम तो यही कहेंगे कि मतिराम और दास की रचनाओं में महदंतर है।
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पाठांतर—