[१]*ता बन की बाट, कोऊ संग न सहेली साथ,
कैसे तू अकेली दधि बेचन को जाति है?"
(मतिराम)
अर्थ—जिस वन में कोकिल-कपोतों का इतना अधिक कलरव रहता है कि दूसरे की बात नहीं सुन पड़ती, जहाँ के वृक्षों पर बेलें और उन पर भ्रमरावली के संयोग से अंधियारी में अधिकता ही बनी रहती है, जहाँ ऐसे-ऐसे कुंज हैं, जिनमें दिन में भी रात-सी रहती है, और तारे-से फूल फूले रहते हैं, उस वन के मार्ग का अनुसरण करती हुई विना किसी सखी के साथ बिलकुल एकाकिनी गोपिका, तू कहाँ दही बेचने जा रही है?
उपर्युक्त वचन नायक का नायिका से है, परंतु इसका जो सीधा-सादा अर्थ ऊपर दिया हुआ है, वह पर्याप्त नहीं। यह 'वचन-चतुर' नायक की उक्ति है। गोपिका से जिस वन में एकांत साक्षात् करना निश्चित हुआ है, उस वन का पूरा पता नायक ने नायिका को चतुराई से बतला दिया है। असल में गोपिका किसी वन के मार्ग का अनुसरण नहीं कर रही थी, पर नायक ने ऐसे ढंग से कहा, मानो वह वहाँ जा ही रही हो। इस प्रकार के कथन का अभिप्राय यह था कि यदि और कोई इस वचन-विलास को सुन ले, तो वह यही समझे कि गोपिका जिस निरापद् जंगल में होकर जा रही थी, उससे शुभचिंतक नायक उसे विरत कर रहा है, पर चतुरा नायिका समझ जाती है कि नायक मुझे अमुक निर्जन वन में मिलने को बुला रहा है।
'नखत-से' के स्थान में कई प्रतियों में 'तखत-से' पाठ भी है, पर हमें वह अशुद्ध समझ पड़ता है।
- ↑ *'संग न सहेली साथ' के स्थान पर 'संग न सहेली कहि' पाठ
भी है।