निर्जनत्व का नग्न वर्णन वास्तव में अरोचक हो जाता; पर सुकवि मतिराम ने वहाँ कोकिल-कपोतों का कलरव, प्रकृति प्रसन्नता-दर्शक भ्रमरावली से परिपूर्ण कुसुमित ललित लताओं से परिवेष्टित वृक्ष और सघन कुंजों का उल्लेख करके रोचकता-गुण का प्रस्फुटन मार्मिकता के साथ किया है। अव्यर्थपदत्व एवं पद्य और भाव की सामंजस्य-पूर्ण एकता के संबंध में कुछ विस्तारपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि इन गुणों में मतिरामजी हिंदी के बड़े प्रसिद्ध प्रसिद्ध कवियों से भी आगे बढ़े हुए हैं। मतिरामजी का वर्णन चातुर्य देखिए, प्रणयियुग्म के लिये छिपकर एकांत सम्मिलन का वही स्थान श्रेष्ठ है, जो निर्जन हो, जहाँ यदि एकाएक कोई आ जाय, तो प्रेमियों के छिपने का अवसर हो, तथा संभाषण सुन लेने का भय भी न हो। यदि ऐसा स्थान प्रकृति-सौंदर्य से युक्त हो, तो संयोगियों के लिये उद्दीपन-सामग्री का भी प्रबंध ठीक समझना चाहिए। मतिरामजी ने अपनी घनाक्षरी में ऐसे ही सहेट का चित्र खींचा है। पद-पद पर विचार कीजिए।
१. "दूसरे की बात सुनि परत न, ऐसी जहाँ
कोकिल-कपोतन की धुनि सरसाति है।"
कोकिल और कपोत-पक्षियों का कलरव इतना अधिक है कि दूसरे की बात नहीं सुनाई पड़ सकती। इस कथन के कई अभिप्राय हैं—
( अ ) वह स्थान बिलकुल जन-शून्य है। इस कारण निर्भय होकर पक्षिगण खूब कलरव करते हैं।
( आ ) यदि किसी कारण से कोई आदमी भूला भटका उधर से निकल भी जाय, तो प्रेमी और प्रणयिनी के प्रेम-संभाषण को कलरव- आधिक्य के कारण सुन न सकेगा।
(इ) कोकिल और कपोत-कूजन उद्दीपन की सामग्री हैं। चित्त में एक विशेष रस का संचार करती हैं। कपोत-कूजन संयोग-दशा का स्मरण दिलाता है। अन्य पक्षियों के कूजन में इस भाव का