३. "नखत-से फूलि रहें फूलन के पुंज घन,
कुंजन मैं होति जहाँ दिन ही मैं राति है।"
जिन फूलों का उल्लेख कवि ने द्वितीय पद में स्पष्ट रूप से नहीं किया था, वे ही इस पद में नक्षत्रों के समान छिटक रहे हैं। पर नक्षत्र तो रात्रि में ही दिखते हैं। रात्रि की सुरम्यता, निस्तब्धता एवं आनंददायिनी शीतलता का भाव संयोगी नायक-नायिकाओं के लिये कैसा है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। दिन में इस चमत्कार का अभाव समझते हुए ही कुशल कवि ने सहेट-स्थान की कुंजों में रात्रि का अंधकार दिखला दिया है, और इस अंधकार के ईषत् भय-प्रदायी भाव को प्रसून पुंज के तारे छिटकाकर बिलकुल कम कर दिया है। सहेट-स्थान की अँधेरी कुंज़ों में किसी के आ जाने पर भी अपने को छिपा लेने का प्रणयियुग्म को जैसा अवसर है, वैसे ही लज्जा-भाव से प्रेरित अखिल काम-कला-केलि का उपयुक्त स्थान भी। उद्दीपन का इससे उत्कृष्ट और कौन-सा साधन है? इस पद में व्यवहृत कोई भी शब्द व्यर्थ का नहीं है।
४. "ता बन की बाट, कोऊ सँग न सहेली, साथ,
कैसे तू अकेली दधि-बेचन को जाति है?"
उत्कृष्ट सहेट का पूरा पता देकर वचन चतुर नायक का यह इशारा बड़ा ही विदग्धता-पूर्ण है कि किसी सखी को अपने साथ न लाना। दधि बेचने के बहाने से जाना कई भावों का द्योतन कराता है। माता-पिता, गुरुजन इत्यादि किसी को भी गोपिका को दधि बेचने के लिये जाने देने में आपत्ति न होगी। संशय का भी कोई अवसर नहीं है। फिर दधि का यात्रा के समय साथ रहना शुभ है। इससे कार्य सिद्धि के विषय में उत्साह रहता है। यदि आवश्यकता हो, तो दधि भोजन के लिये भी बड़ी ही उपयुक्त वस्तु सिद्ध होगी। इस पद में भी कोई शब्द व्यर्थ नहीं है।