भाव की सामंजस्य-पूर्ण एकता का निर्वाह छंद-भर में जिस कौशल से संगठित हुआ है, वह भी मनोरम है। 'सहेट में मिलन' प्रधान भाव है। सहेट के अपेक्षित सभी उत्तम गुणों का उल्लेख होना उपयुक्त ही है। किस प्रकार मिलें, इसका उत्तर भी कवि ने साफ़ दे दिया है कि अकेले मिलो। किस बहाने से मिलें, इसका भी उत्तर।वैसा ही स्पष्ट है कि दही बेचने के बहाने से मिलो। छंद के चारो पदों में क्रम-क्रम से इस भाव ने विकास पाया है, और अतिम पद में तो वह सुंदरता की चरम सीमा पर पहुँच गया है।
सदृश भाव
कविवर मतिराम ने संस्कृत-कवियों के भी अनेकानेक भावों को अपनी कविता में सन्निवेशित किया है, पर इस मार्ग में भी उनकी नीति निराली है। दासजी के समान कोरा अनुवाद उन्होंने कभी नहीं पसंद किया है। उक्ति का रूप या तो उन्होंने और भी परिमाजित और मनोरम कर दिया है, या भाव को नाम-मात्र अपने छंद में लेकर उसको बिलकुल मौलिकता का ही रूप दे डाला है। नीचे ऐसे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—
१. "तदाननं मृत्सुरभि क्षितीश्वरो रहस्युपाघ्राय न तृप्तिमाययौ;
करीव सिक्तंपृषतः पयोमुचां शुचि व्यपाये वनराजिपल्वलम्।"
(कालिदास)
"ग्रीष्म के अंत में बादलों की बूंदों से छिड़के गए वन के अल्प
जलाशय को बार-बार सूंघने पर भी जिस तरह हाथी की तृप्ति नहीं होती, उसी तरह मिट्टी की सुगंधिवाले सुदक्षिणा के मुँह को एकांत में अनेक बार सूंघने पर भी राजा दिलीप की तृप्ति न हुई।"
(अनुवादक—पं० महावीरप्रसादजी)