पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१५८

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मतिराम-ग्रंथावली

ries १५४ मतिराम-ग्रंथावली इसके बाण हैं, भौंरों की पंक्ति ही इसके धनुष का रोदा है, और यह कामुक जनों के मन को बेधने के लिये तैयार है ।" । (अनुवादक-शिवप्रसाद पांडेय) मतिरामजी इसी भाव को यों ललित करते हैं- "आयो बसंत, रसाल प्रफुल्लित, कोकिल-बोलनि स्रौन सुहाई, भौंरन को 'मतिराम' किए गुन, काम प्रसून-कमान चढ़ाई। रावरो रूप लगो मन मैं, तन मैं तिय के झलकी तहनाई, धीर धरो, अकुलात कहा ? अब तो बलि, बात सबै बनि आई।" कालिदास के भाव को अपनाकर भी मतिराम ने उसमें एक प्रकार की नूतनता उत्पन्न कर दी है। मतिरामजी मौलिक कवि थे- उन्होंने अगर किसी के भाव भी लिए हैं, तो उन्हें अपना लिया है। RELIES SaifieleseddNetanamaANJu PAINEENDERa n maina eetamountaintainmeneurse ____ मतिराम और गोवर्द्धनाचार्य कविवर गोवर्द्धनाचार्य-विरचित आर्यासप्तशती में ३५५ नंबर की आर्या में किसी तरुणी के कटाक्ष का वर्णन है। ठीक इसी वर्णन से मिलता जुलता भाव मतिराम की एक घनाक्षरी में पाया जाता है। यह छंद 'रसराज' में स्मृति के और 'ललितललाम' में पूर्णोपमा के उदाहरण में दिया हुआ है । गोवर्द्धनाचार्यजी ने अपनी आर्या में बहुत थोड़े शब्दों में जो भाव घेर लिया है, वह बड़ा ही मनोरम है। एक- एक शब्द से आपने वह काम लिया है, जो अन्य कवि लंबे-लंबे वाक्यों से लेता। इतनी संक्षिप्त शब्द-योजना होते हुए भी आपने भाव को सर्वांगसुंदर रीति से अभिव्यक्त कर दिया है। इसी भाव को हम मतिराम की घनाक्षरी में भी भली भाँति सुसज्जित पाते हैं। जो बात स्थल- संकोच के कारण आर्याकार ने एक शब्द द्वारा प्रकट की थी, घना- क्षरीकार ने वही बात स्थान की कमी न होने से अनेक शब्दों द्वारा दर्शाई है। पाठकगण दोनो रचनाएँ साथ-साथ देखें-