पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१५७

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समीक्षा

. समीक्षा १५३ मतिरामजी ने इस भाव को इसी प्रकार से अपने दोहे में यों अभिव्यक्त किया है- "सुधा-मधुर तेरो अधर, सुंदर सुमन सुगंध; पीव जीव को बंधु है, बंधुजीव को बंध।" ४. "दृष्टिवन्दनमालिका, स्तनयुगं लावण्यपूर्णी घटौ, शुभ्राणां प्रकटः स्मितः सुमनसां वक्त्रप्रभादर्पणः; रोमाञ्चोद्गम एवं सर्षपकणः, पाणी पुनः पल्लवी, स्वाङ्रेव गृहप्रियस्य विगतस्तन्व्या कृतं मङ्गलम् ।" भावार्थ-"जब प्रियतम घर में प्रवेश करने लगा, तो उसकी प्रियतमा ने अपने अंगों ही से यथोचित मंगलाचार पूरा किया। उसके एकटक देखने ने बंदनवार का, दोनो स्तनों ने लावण्य-रूपी जल से भरे हुए दो घड़ों का, मुस्किराहट ने सफ़ेद फूल की वर्षा का, मुख की कांति ने दर्पण का, रोमांच ने सरसों के कणों का, हाथों ने पल्लवों . . का काम दिया।" (अनुवादक-पं० जनार्दन भट्ट एम० ए०) मतिराम के दोहे में भी नायिका 'स्तनयुगं लावण्यपूणौं घटौ' के रूप में दर्शाती है। पर आगमन के समय नहीं, वरन् नायक के विदेश- यात्रा करने को उद्यत होते समय और आश्चर्य-घटना यही होती है कि ऐसे शुभ शकुन को देखते हुए भी नायक अपनी यात्रा रोक देता है । मतिराम का कौशल ऐसा ही है, यथा- "पिय राख्यो परदेस तै अति अद्भुत दरसाय- कनक कलश पानिप-भरे सगुन उरोज दिखाय।" ५. प्रफुल्लचूताडू रतीक्ष्णशायको द्विरेफमालाविलसद्धनुर्गुणः ; मनांसि वेद्धं, सुरतप्रसङ्गिनां वसन्तयोद्धः समुपागतः प्रिये।" (कालिदास) अर्थ-“हे प्यारी, वसंत-रूपी वीर आ गया । बौरे आम के अंकुर