बना डाला है। मोती की सफ़ेदी का कहीं पता नहीं रह गया। उसका कुछ अंश श्याम हो रहा है, और कुछ लाल। पर जिन कारणों से सूर ने मोती को गुंजाफल बनाया, उन्हीं कारणों से मतिराम का मोती घुँघची नहीं बना है। नेत्रों की श्यामता और अधरों की लाली का प्रतिबिंब पड़ने से पूर्ववर्ती कवि का मोती चिरमिटी-रूप पाता है, तो केशपाश की श्यामता और ऍड़ियों की ललाई से परवर्ती कवि का मुक्ता 'गुंजरुचि' धारण करता है। दोनो भाव साथ-साथ देखिए—
"गुंजा की-सी छबि लई मुक्ता अति बड़भाग;
(सूरदास)
"तरुनि-अरुन ऍंड़िन की किरिन-समूह-उदोत—
(मतिराम)
मतिराम ने जिस नायिका का वर्णन किया, उसकी वेणी से मुक्ता गुथे हुए हैं। वह छूटकर ऍड़ियों तक पहुँच रही है। एड़ियाँ खूब अरुण हैं। इनकी ललाई का प्रतिबिंब उन मोतियों पर पड़ रहा है। श्याम केश-पाश की झलक भी उन पर पड़ती है। बस, ऐसा जान पड़ता है कि सारे-के-सारे मोती घुँघची हो रहे हैं।
गोस्वामी तुलसीदास और मतिराम
कवि-कुल-मुकुट गोस्वामी तुलसीदासजी और महाकवि मतिराम बिलकुल भिन्न कोटि के कवि हैं। इन दोनो कवियों की कविता की तुलना नहीं की जा सकती। दोनो के ही वर्णित विषय भिन्न-भिन्न हैं। कथन शैली में भी पृथक्ता है। सादृश्य का सामान बहुत कम है। यह सब होते हुए भी हम जो दो-एक उदाहरण दोनो कवियों के भाव सादृश्य दिखलाने को यहाँ देते हैं, उससे हमारा अभिप्राय