पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१६३

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समीक्षा १५९ यह है कि सुकवि मतिराम ने कविवर तुलसीदास के काव्य को भी पढ़ा था। अपने 'रसराज' और 'ललित ललाम' के अनुरूप जो चीज़ उन्हें गोस्वामीजी के ग्रंथों से मिली, उसे उन्होंने निस्संकोच अपनाया। उदाहरण लीजिए- (१) जनक-नंदिनी के केश-पाश में सुंदर-सुंदर उज्ज्वल मोती गुथे हुए हैं। इन मोतियों पर जब बालों की श्यामता का प्रतिबिंब पड़ता है, तो ऐसा जान पड़ता है कि वे मरकत-मणि के मनोहर दाने हैं। मोतियों की सफ़ेदी का लोप हो जाता है, उनमें केश-कलाप की श्यामता झलकने लगती है। वे अपने रंग को छोड़कर दूसरे के रंग को ग्रहण करते हैं; पर सीताजी एक बार इन्हीं मोतियों को फिर अपने हाथों पर रखती हैं। क्षण-मात्र में इन पर पड़नेवाला चिकुर- श्यामता का प्रतिबिंब नष्ट हो जाता है। हाथ के साथ-साथ एक बार मोतीगण अपना वही उज्ज्वल रंग फिर धारण करते हैं। उन्हें अपना पूर्व रूप प्राप्त हो जाता है। गोस्वामीजी इस भाव को अपने मनो- मोहक बरवै में इस प्रकार प्रकट करते हैं- "केस-मुकुत सखि, मरकत-मनिमय होत; हाँथ लेत पुनि मुकता करत उदोत ।" (तुलसी) मतिरामजी ने ठीक इसी भाव को कुछ उलट-पुलटकर अन्यत्र बिठाला है। श्रीकृष्णचंद्र के हृदय-स्थल पर उन्हीं उज्ज्वल मोतियों की माला झूल रही है। सहज श्यामल गात की आभा से यह माला मरकत-मणि की माला समझ पड़ती है; पर पास ही श्रीवृषभानु- नंदिनी भी विराज रही हैं। वह कभी-कभी मंद-मंद स्मित कर दिया करती हैं। इस मुसक्यान की उज्ज्वल प्रभा चारो ओर उदित हो पड़ती है। वह मरकत-मणिवत् भासित होनेवाले मोतियों की माला पर भी पड़ती है। उस समय एक बार मोतियों को अपनी पूर्व