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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१६५

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१६१
समीक्षा

 

"हीरन-मोतिन के अवतंसनि सोने के भूषन की छबि छावे;
हार चमेली के फूलन के, तिनमैं रुचि चंपक की सरसावै।
अंग के संग तैं केसरि-रंग की अंबर सेत मैं जोति जगावै;

बाल छबीली छपाए छपै नहि, लाल, कहौ अब कैसे क आवे?"

(मतिराम)

महाकवि केशवदास और मतिराम

कविवर केशवदास और मतिराम के भावों में भी कहीं-कहीं अद्भुत भाव-सादृश्य मौजूद है। केशवदासजी का कहने का ढंग परम गंभीर है। एक शब्द का भी व्यवहार व्यर्थ नहीं होता। मतिरामजी ने अपने पूर्ववर्ती कविवर की इन दोनो ही विशेषताओं को अपनाया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने काव्य में मधुरता की ऐसी सोहावनी पुट दे दी है कि बस, सोने में सुगंध की कहावत चरितार्थं होती है। लीजिए, भाव-सादृश्य के दो उदाहरण उपस्थित किए जाते हैं—

(१) बाला के मृदु हास पर उभय कविवर रीझ गए हैं। कल्पना के विस्तृत क्षेत्र में इस मंद हास्य को लेकर दोनो कवियों ने खूब परिभ्रमण किया है। जिस प्रकार केशवदास को 'भोरी गोरी की थोरी-थोरी हाँसी' को देखकर नाना प्रकार के संदेह उठे हैं कि यह मंद हास्य अमुक-अमुक वस्तु तो नहीं है, उसी प्रकार मतिराम के मति-मुकुर पर भी ऐसे ही अनेक संदेहों के मनोरंजक प्रतिबिंब दिखलाई पड़ते हैं। बाला के वदन में जो मृदु हास विलसित था, उसकी बदौलत मतिराम को कल्पना-कल्लोलिनी में खूब गहरे में उतरना पड़ा है। पहले केशवदास की प्रतिभा का सुख लूटिए—

"किधौं मुख-कमल ये कमला की ज्योति होति,
किधौं चारु मुख चंद्र-चंद्रिका चुराई है;