उज्ज्वलता फिर प्राप्त हो जाती है। लोगों को श्रीकृष्ण के हृदय में एक बार शुभ्र मोतियों की माला ही झूलती हुई फिर दिखलाई पड़ती है। पूर्वरूप अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण कवि के नेत्रों के सामने नृत्य करने लगता है। मतिराम की मति उसे तत्काल यो प्रकट कर देती है—
"मुकुत-हार हरि के हिए मरकत-मनिमय होत;
(मतिराम)
(२) एक छोटा-सा और उदाहरण लीजिए।
जनक-नंदिनी को उज्ज्वल बेले का हार पहनाया जाता है, पर वह चंपक वर्ण का समझ पड़ने लगता है। शरीर की कांति का प्रतिबिंब फूलों पर पड़ता है, और बेले के स्थान में वे चंपे के फूलों का रंग धारण करते हैं। तद्गुण-अलंकार का कैसा अच्छा उदाहरण है!
"सिय, तुव अंग-रंग मिलि अधिक उदोत;
(तुलसी)
मतिरामजी ने गोस्वामी से वर्ण परिवर्तन-ताले को खोलनेवाली कुंजी प्राप्त कर ली। अब वह उसका मनमाना प्रयोग करने में समर्थ हो गए। नायिका हीरे और मोती के गहने पहनती है, तो वे भी सोने के जान पड़ने लगते हैं। चमेली के सफ़ेद फूलों का हार धारण करती है, तो उसमें चंपक-पुष्प की द्युति दमकने लगती है। यहाँ तक कि जब कभी वह श्वेत वस्त्र धारण करती है, तो वे केशर से रँगे समझ पड़ते हैं। सारे सफ़ेद वस्त्र, गहने और हार अपना रंग बदल डालते हैं। वे पीले पड़ जाते हैं। सफ़ेदी से पीलापन किसी प्रकार भी छिपाया नहीं छिप सकता। ऐसी दशा में नायिका की देह द्युति के छिपाने के सब उद्योग व्यर्थ हैं।