पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१६७

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समीक्षा कर है । अन्य स्थल दोनो ही छंदों में अपने-अपने ढंग से अनूठे हैं। फिर भी मतिराम की मार्मिकता का विकास उनके छंद के अंतिम पद में पाया जाता है । कवि ने कैसा अच्छा संदेह उठाया है, अहा ! यह बाला का मृदु हास्य है, या उसके प्रियतम के युगल नेत्रों को शीतल करनेवाला शुभ्र घनसार-खंड है । कर्पूर शीतल है, शुभ्र और उद्दीपक भी । नायिका का मृदु हास्य भी नायक को समान भाव से सुखद है । सो हास्य के संबंध में धनसार का संदेह उठाकर मतिराम ने अपने मति-मुकुर में प्रतिभा की मनोरंजिनी छाया दिखला दी है। संदेहा- लंकार के दोनो ही छंद उत्कृष्ट उदाहरण हैं। (२) दूसरा उदाहरण लीजिए- "दुरिहै क्यों भूखन-बसन दुति जोबन की, देहहूँ की जोति होति द्यौस-ऐसी राति है ; नाहक सुबास लागे हहै कैसी 'केसव' सुभावती की बास भौंर-भीर फारे खाति है। देखि तेरी सूरति को मूरति बिसूरति हूँ, लालन के दृग देखिबे को ललचाति है ; चालिहै क्यों चंद्रमुखी कुचन के भार भए, कचन के भार ही लचक लंक जाति है।" .. (केशव) "चरन धरै न भूमि, बिहर तहाँई, जहाँ फूले - फूले फूलन बिछायो परजंक है ; भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगन मैं करत न अंगराग-कुंकुम को पंक है। कहै 'मतिराम' देखि बातायन बीच आयो, आतप-मलीन होत बदन - मयंक है; कैसे वह बाल लाल, बाहेर बिजन आवै, बिजन-बयारि लागे लचकति लंक है।" (मतिराम)