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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१६८

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मतिराम-ग्रंथावली

  यद्यपि उभय कविवरों के वर्णन में प्रसंग की दृष्टि से पर्याप्त पार्थक्य है, फिर भी केशव और मतिराम, दोनो ने हो सुकुमारता की दोहाई दी है। एक कवि को यदि यह फ़िक्र पड़ी है कि जब बालों के बोझ से अभी कमर लचक जाती है, तो पीन पयोधरों का भार वह कैसे वहन कर सकेगी, तो दूसरा कवि साफ़-साफ़ कह देता है कि सुकुमारी की लंक पंखे की हवा से भी बल खा जाती है, इसलिये उसका बाहर जाना असंभव है। पूर्ववर्ती कवि के छंद में देह-द्युति और शरीर के सुवास का भी अच्छा परिचय है; परंतु परवर्ती कवि ने एकमात्र सुकुमारता को ही अपनाया है। उसके प्रत्येक पद से सुकुमारता के भाव की ही पुष्टि होती है। द्वितीय संबंधातिशयोक्ति और मध्यम दूती के उदाहरण में यह छंद क्रम से 'ललितललाम' और 'रसराज' में समाविष्ट है।

रहीम और मतिराम

अब्दुल रहीम खानखाना उपनाम 'रहीम' कवि के भाव भी यत्र-तत्र मतिरामजी की कविता में पाए जाते हैं। पाठकों के मनोरंजन के लिये कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—

(१) "गई आगि उर लाय, आगि लेन आई जो तिय;

लागी नहीं बुझाय, भभकि-भभकि, बरि-बरि उठै।"

(रहीम)


"नैन जोरि, मुख मोरि, हँसि, नैसुक नेह जनाय;

आगि लेन आई, हिए मेरे गई लगाय।"

(मतिराम)

रहीम के हृदय में जो अग्नि लगी है, वह बुझाने से नहीं बुझती, भभक-भभककर जल उठती है। मतिरामजी के दोहे से यह नहीं प्रकट है कि इस अग्नि का बल उनके हृदय पर कितना हुआ है। इतना