मनोभावनाएँ पवित्र बन जाती हैं, तथा विवेक में स्फूर्ति का संचार होता है, उसे निरुपयोगी कैसे कहा जा सकता है?
कविता में सौंदर्य की उपासना है। सौंदर्य से आनंद की प्राप्ति है। कविता के लिये रमणीयता परमावश्यक है। आनंद के अभाव में रमणीयता का प्रादुर्भाव बहुत कठिन है। सो कविता के सभी प्रयोजनों में आनंद का ही बोलबाला है।
अँगरेज़ी-साहित्य-संसार के दिग्गज विद्वानों ने कविता के मुख्य उद्देश्यों में आनंद का स्पष्ट उल्लेख किया है। संस्कृत के आचार्यों का मत भी यही है। हिंदी काव्य के प्रतिष्ठित कवि कोविदों ने भी इसी मत का समर्थन किया है। इस पुस्तक में इतना स्थान नहीं कि सभी विद्वानों की इस विषय से संबंध रखनेवाली सम्मतियों पर विचार किया जाय, इसलिये दो-चार सम्मतियाँ उद्धृत करके ही हम संतोष करते हैं।
पहले एक हिंदी-कविता के आचार्य की ही सम्मति लीजिए। सुकवि बिहारीलाल के भांजे आचार्यवर कुलपति मिश्र की राय है कि कविता लोकोत्तर आनंद को आश्रय देनेवाली है। उन्होंने कविता के प्रयोजनों का उल्लेख करते हुए 'आनंद' की भी उनके अंतर्गत गणना की है[१]।
कुलपति मिश्र की सम्मति के बाद हम क्रम से मम्मटाचार्य, कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर एवं वर्ड्सवर्थ तथा कालरिज की सम्मतियाँ भी उद्धृत करते हैं—
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जग ते अद्भुत सुख-सदन शब्द रु अर्थ कबित्त;
होत कबित मैं चतुरई जगत राम बस होय।
यह लक्षण मैंने कियो समुझि ग्रंथ बहु चित्त।
जस संपति आनंद अति दुरितन डारै खोय;
(रस-रहस्य)