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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१६

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मतिराम-ग्रंथावली

पत्नी, माता, पिता, बच्चे, गृह और देश, ये ही सब तो उस दशा के केंद्र हैं, जो जीवन को अनुरागमय बनाते हैं।"

कविता का प्रयोजन

कविता कई प्रयोजनों से की जाती है। आनंद भी एक प्रयोजन माना गया है। यह आनंद लोकोत्तर होता है। कविता को छोड़ अन्यत्र इस आनंद की प्राप्ति नहीं होती। यों तो भूत-मात्र की उत्पत्ति आनंद से है, जीवन की स्थिति भी आनंद से ही है, तथा उसकी प्रगति और निलय भी आनंद में ही है, फिर भी कविता का आनंद निराला है। आत्मा के आनंद का प्रकाश कला द्वारा ही होता है।

बाह्य रूप से तो कला द्वारा मनुष्य और प्रकृति-संसार का अनुकरण किया जाता है। जो कुछ मनुष्य और प्रकृति में पाया जाता है, उसी का प्रतिबिंब कला में दिखलाया जाता है, परंतु कला का आंतरिक भाव कुछ और ही है। कला की आत्मा प्रेम, शांति, सौंदर्य और आनंद से बनी है। आनंद की कोई सीमा नहीं। वह कभी नाश नहीं हो सकता। कवितानंद को क्षणिक समझना भूल है। एक बार जब हम पूरे तौर से सच्चे सौंदर्य और आनंद का आस्वादन कर लेते हैं, तो वह हमारे हृदयाकाश में सदा के लिये एक उज्ज्वल तारे के समान झलका करता है।

कविता का आनंद निरुपयोगी नहीं है। वह लाभदायक है। भला जिस आनंद की बदौलत कल्पना-शक्ति का विस्तार होता है,


parents and child, home and country form the centre of all that makes life dear.

From Sylvanus Stall's 'What a young man ought to know' and 'What a young husband ought to know' pages 179 and 25-26 respectively.