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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१८०

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मतिराम-ग्रंथावली

 

'आलम' सुकबि कहै, तन-बीच कान्ह-छबि,
जोग देन आए तुम, कहा हम जोगी हैं;
जोग तौ सिखावै ताहि, जोग की जुगति जानै,
जोग को न काज हम बंसी-रस भोगी हैं।"

भूषण और मतिराम

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"उत्तंग मरकत - मंदिरन महॅं बहु मृदंग जु बाजहीं;
घन समे मानहुँ घुमारि करि घन घन-पटल-गल गाजहीं।"

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"मुकतानि की झालरनि मिलि मनि-माल छज्जा छाजहीं;
संध्या-समै मानहु नखतगन लाल अंबर राजहीं।"

()

"भूवन भवन, जहँ परसिकै मणि पुहुप रागन की प्रभा;
प्रभु पात पट की प्रगटः पावन सिंधु मेधन की सभा।"

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"देसन - देसन नारि-नरेसन भूखन यों सिख देहि दया सों,
मंगन है करि दंत गहौ तिन कंत तुम्हैं है अनंत महा सों;
कोट गहो कि गहौ बन-ओट कि फौज की जोट सजौ प्रभुता सों,

और करौ किन कोटिक राह सलाह बिना बचिहौ न सिवा सों।"

(भूषण)

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"जहाँ छहौ ऋतु मैं मधुर सुनि मृदंग मृदु सोर;
संग ललित ललनान के नृत्य करत गृह-मोर।"

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"सरद बारिधर-से लसत अमल धौरहर धौल;
चित्रनि चित्रित सिखर जहँ इंद्र-धनुष-से नौल।"