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मतिराम-ग्रंथावली

१७६ मतिराम-ग्रंथावली 'आलम सकबि कहै, तन-बीच कान्ह-छबि, जोग देन आए तुम, कहा हम जोगी हैं; जोग तौ सिखावै ताहि, जोग की जुगति जान, जोग को न काज हम बंसी-रस भोगी हैं।" भूषण और मतिराम "उत्तंग मरकत - मंदिरन मह बहु मृदंग जु बाजहीं; घन समे मानहुँ घुमारि करि घन घन-पटल-गल गाजहीं।" (२) "मुकतानि की झालरनि मिलि मनि-माल छज्जा छाजहीं; संध्या-समै मानहु नखतगन लाल अंबर राजहीं।" "भूवन भवन, जहँ परसिक मणि पुहुप रागन की प्रभा प्रभु पात पट को प्रगटः पावन सिंधु मेधन की सभा।" "देसन - देसन नारि-नरेसन भूखन यों सिख देहि दया सों, मंगन है करि दंत गहौ तिन कंत तुम्हें है अनंत महा सों; कोट गहो कि गहौ बन-ओट कि फौज की जोट सजौ प्रभुता सों, और करौ किन कोटिक राह सलाह बिना बचिहौ न सिवा सों।" (भूषण) "जहाँ छहौ ऋतु मैं मधुर सुनि मृदंग मृदु सोर; संग ललित ललनान के नृत्य करत गृह-मोर ।" (२) "सरद बारिधर-से लसत अमल धौरहर धौल; चित्रनि चित्रित सिखर जहँ इंद्र-धनुष-से नौल।"