तू तो है रसीली, रस-बातन बनाय जानै,
मेरे जान आई रस राखिकै रसीले सों।"
उपर्यक्त छंद से नीचे लिखा आलम का छंद मिलाइए। देखिए, कैसा सुंदर साम्य है—
"तो सी ढीठी, निठुर बसीठी देखी मैं न कहूँ,
मीठी मुख आगे, पीठि-पाछे करै रारि-सी;
मेरे आए मेरी भई, वा पै वाही की ह्वै गई,
दई को न डरु, लोक-लाज दई डारि-सी।
'आलम सुकबि' आई बातन रिझाय मनु,
मुरझानो मोहन, मुरी है बेझा मारि-सी;
बात-सी बनाय, सु लचाय हिय लाए इत,
तू तौ चली नारि, फिर नावक की नारि-सी।"
आलमजी में मतिराम का भाव-सौकुमार्य और भाषा-माधुर्य नहीं है। उभय कविवरों के छंदों में बहुत बड़ा अंतर है। मतिरामजी का गोपी-उद्धव-संवादवाला वह छंद, जिसका अंतिम पद यह है—
"ऊधो, तुम कहत, बियोग तजि जोग करौ,
जोग तब करैं, जो बियोग होय स्याम सों।"
इस पुस्तक में कई बार उद्धृत किया जा चुका है। इस भाव को बड़े-बड़े कवियों ने अपनाने की चेष्टा की है। आलम भी इस लोभ को संवरण करने में समर्थ नहीं हो सके; पर इनमें मतिराम की वह माधुरी कहाँ? पाठक स्वयं देख लें। आलमजी का छंद इस प्रकार है—
"तरनिजा-तट, बंसीबट, कुंज-पुंज, बीथी,
बन घन, जहाँ-तहाँ आनॅंदुपयोगी हैं;
सोई रहै ध्यान ऊधो ग्यान को न काज कीजै,
ये तो ब्रज-बासी ब्रजराज के बियोगी हैं।