पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१७९

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समीक्षा

समीक्षा १७५ तू तो है रसीली, रस-बातन बनाय जाने, मेरे जान आई रस राखिकै रसीले सों।" उपर्यक्त छंद से नीचे लिखा आलम का छंद मिलाइए। देखिए, कैसा सुंदर साम्य है- "तो सी ढीठी, निठुर बसीठी देखी मैं न कहूँ, मीठी मुख आगे, पीठि-पाछ कर रारि-सी; मेरे आए मेरी भई, वा पै वाही की है गई, दई को न डरु, लोक-लाज दई डारि-सी। 'आलम सुकबि' आई बातन रिझाय मनु, मुरझानो मोहन, मुरी है बेझा मारि-सी; बात-सी बनाय, सु लचाय हिय लाए इत, तू तौ चली नारि, फिर नावक की नारि-सी।" .. आलमजी में मतिराम का भाव-सौकुमार्य और भाषा-माधुर्य नहीं है । उभय कविवरों के छंदों में बहुत बड़ा अंतर है। मतिरामजी का गोपी-उद्धव-संवादवाला वह छंद, जिसका अंतिम पद यह है- "ऊधो, तुम कहत, बियोग तजि जोग करौ, जोग तब करें, जो बियोग होय स्याम सों।" इस पुस्तक में कई बार उद्धृत किया जा चुका है । इस भाव को बड़े-बड़े कवियों ने अपनाने की चेष्टा की है। आलम भी इस लोभ को संवरण करने में समर्थ नहीं हो सके; पर इनमें मतिराम की वह माधुरी कहाँ ? पाठक स्वयं देख लें। आलमजी का छंद इस प्रकार "तरनिजा-तट, बंसीबट, कुंज-पुंज, बीथी, - बन घन, जहाँ-तहाँ आनेदुपयोगी हैं; सोई रहै ध्यान ऊधो ग्यान को न काज कीजै, ये तो ब्रज-बासी ब्रजराज के बियोगी हैं।